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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 9
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒न्धन्तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ येऽस॑म्भूतिमु॒पास॑ते।ततो॒ भूय॑ऽइव॒ ते तमो॒ यऽउ॒ सम्भू॑त्या र॒ताः॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्धम्। तमः॑। प्र। वि॒श॒न्ति॒। ये। अस॑म्भूति॒मित्यस॑म्ऽभूतिम्। उ॒पास॑त॒ इत्यु॑प॒ऽआस॑ते ॥ ततः॑। भूय॑ऽइ॒वेति॒ भूयः॑ऽइव। ते। तमः॑। ये। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सम्भू॑त्या॒मिति॒ सम्ऽभू॑त्या॒म्। र॒ताः ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्धन्तमः प्र विशन्ति येसम्भूतिमुपासते । ततो भूयऽइव ते तमो यऽउ सम्भूत्याँ रताः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्धम्। तमः। प्र। विशन्ति। ये। असम्भूतिमित्यसम्ऽभूतिम्। उपासत इत्युपऽआसते॥ ततः। भूयऽइवेति भूयःऽइव। ते। तमः। ये। ऊँऽइत्यूँ। सम्भूत्यामिति सम्ऽभूत्याम्। रताः॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 9
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    भावार्थ -
    ( ये ) जो ( असंभूतिम् ) सत्व, रजस्, तमस् तीन गुणों वाली अव्यक्त प्रकृति की (उपासते ) उपासना करते हैं वे ( अन्धं तमः) गहरे अन्धकार में (प्रविशन्ति) चले जाते हैं । (ये उ) और जो ( संभूत्याम् ) मरुत् आदि विकारमय सृष्टि में ( रताः) रमण करते हैं, उसी में मग्न हो जाते हैं (ते) वे (ततः) उससे भी (भूय: इव) अधिक गहरे (तमः) अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं अर्थात् केवल प्रकृति के उपासक परमानन्द परमेश्वर की आनन्दमय परम ज्योति को प्राप्त नहीं करते, वे जड़ोपासना में मग्न रहते हैं और जो प्रकृति विकारों की ही उपासना करते हैं वे भी सुख नहीं पाते । अथवा - ( असम्भूतिम् ) इस देह को छोड़ कर पुन: आत्मा अन्य देह में उत्पन्न नहीं होता, जो इसी प्रकार मानते हैं वे गहरे अज्ञान में रहते हैं और जो ( सम्भूतिम् ) आत्मा ही कर्मानुसार उत्पन्न होता है मरता है और ईश्वर कुछ नहीं है ऐसा मानते हैं वे उससे भी गहरे अंधकार में पड़ते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आत्मा । अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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