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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 20
    ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - विराट् आर्ची त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    प्र तद्विष्णु॑ स्तवते वी॒र्य्येण मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः। यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑णेष्वधिक्षि॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। तत्। विष्णुः॑। स्त॒व॒ते॒। वी॒र्ये᳖ण। मृ॒गः। न। भी॒मः। कु॒च॒रः। गि॒रि॒ष्ठाः। गि॒रि॒स्था इति॑ गिरि॒ऽस्थाः। यस्य॑। उ॒रुषु॑। त्रि॒षु। वि॒क्रम॑णे॒ष्विति॑ वि॒ऽक्रम॑णेषु। अ॒धि॒क्षि॒यन्तीत्य॑धिऽक्षि॒यन्ति॑। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र तद्विष्णु स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः । यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। तत्। विष्णुः। स्तवते। वीर्येण। मृगः। न। भीमः। कुचरः। गिरिष्ठाः। गिरिस्था इति गिरिऽस्थाः। यस्य। उरुषु। त्रिषु। विक्रमणेष्विति विऽक्रमणेषु। अधिक्षियन्तीत्यधिऽक्षियन्ति। भुवनानि। विश्वा॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 20
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    भावार्थ -

     ( यस्य ) जिसके ( उरुष ) महान् (त्रिषु विक्रमणेषु ) तीन प्रकार के विक्रम, तीन लोक या सत्व, रजस, तमस् त्रिगुणात्मक सर्ग में ( विश्वा भुवनानि ) समस्त उत्पन्न होने वाले पदार्थ और लोक ( अधि- क्षियन्ति ) निवास करते हैं । (तद् ) वह ( विष्णु: ) व्यापक परमेश्वर अपने महान् ( वीर्येण ) सामर्थ्य के कारण ( कुचरः ) बनादि में विचरने वाले ( गिरिष्ठा: ) पर्वतों के वासी ( भीमः मृगः न ) भयानक व्याघ्र या सिंह के समान ( कुचरः ) पृथिव्याकाशादि में व्यापक ( गिरिष्ठा: ) समस्त वेदवाणियों में प्रतिपाद्यरूप से स्थित ( प्र स्तवते ) सबसे उत्कृष्टरूप से वर्णन किया जाता है या वह (प्रस्तवते ) सबको उपदेश देता है ॥ 
    राजा के पक्ष में जिस राजा के महान् प्रज्ञा, उत्साह और शक्ति तीन प्रकार के विक्रमों के वश में समस्त लोक प्राणी बसते हैं यह वनचरगिरिगुहावासी सिंह के समान भया वह अपने वीर्य के कारण ही स्तुति को प्राप्त होता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    प्रजापतिःऋषिः।औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः । विष्णुर्देवता । विराड् आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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