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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - ब्राह्मी उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
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    या वां॒ कशा॒ मधु॑म॒त्यश्वि॑ना सू॒नृता॑वती। तया॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षितम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒श्विभ्यां॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॒र्माध्वी॑भ्यां त्वा॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या। वा॒म्। कशा॑। मधु॑मतीति॒ मधु॑ऽमती। अश्वि॑ना। सू॒नृताव॒तीति॑ सू॒नृता॑ऽवती। तया॑। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒त॒म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मि॒त्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। माध्वी॑भ्याम्। त्वा॒ ॥११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या वाङ्कशा मधुमत्याश्विना सूनृतावती । तया यज्ञम्मिमिक्षतम् । उपयामगृहीतो स्यश्विभ्यान्त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यान्त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    या। वाम्। कशा। मधुमतीति मधुऽमती। अश्विना। सूनृतावतीति सूनृताऽवती। तया। यज्ञम्। मिमिक्षतम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। त्वा। एषः। ते। योनिः। माध्वीभ्याम्। त्वा॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 11
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    भावार्थ -

    हे ( अश्विना ) हे सूर्य और चन्द्र या सूर्य और पृथिवी के समान परस्पर नित्य मिले हुए राजा और प्रजाजनो ! या स्त्री पुरुषो ! ( या ) जो ( वाम् ) तुम दोनों वर्गों की ( मधुमती ) मधुर, आनन्दप्रद, रस से युक् ( सूनृतावती ) उत्तम सत्य ज्ञान से पूर्ण ( कशा ) वाणी है ( तथा ) उससे यज्ञम् ) इस राष्ट्र रूप यज्ञ को ( मिमिक्षतम् ) सेचन करते रहो, उससे इसमें निरन्तर आनन्द को बृद्धि करते रहो। हे योग्य पुरुष ! राजन् ! (उपयाम- गृहीतः असि) देश के शासन द्वारा तू बद्ध है । (त्वा) तुझको (अश्विभ्याम्) देश के स्त्री और पुरुष दोनों की उन्नति के लिये नियुक्र करता हूं । ( एष ते योनिः ) तेरे लिये यही आश्रय है। (त्वा) तुझको (माध्वीभ्याम् ) मधु, उत्तम रस के प्रदान करने वाली, नीति और शक्ति दोनों के लिये प्रतिष्ठित करता हूं । 

    शिष्य अध्यापक के पक्ष में-- वे दोनों सूर्य चन्द्र के समान प्रकाशित हैं उनकी मधुमयी, ज्ञानमयी मधुरवाणी उनके ज्ञान यज्ञ को बढ़ावे । यही उनका आश्रय है । शत० ४ । १ । ५ । १५ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

     मेधातिथिऋषिः । अश्विनौ देवते । ब्राह्मी उष्णिक । ऋषभः ॥ 

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