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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 103/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ॒शुः शिशा॑नो वृष॒भो न भी॒मो घ॑नाघ॒नः क्षोभ॑णश्चर्षणी॒नाम् । सं॒क्रन्द॑नोऽनिमि॒ष ए॑कवी॒रः श॒तं सेना॑ अजयत्सा॒कमिन्द्र॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒शुः । शिशा॑नः । वृ॒ष॒भः । न । भी॒मः । घ॒ना॒घ॒नः । क्षोभ॑णः । च॒र्ष॒णी॒नाम् । स॒म्ऽक्रन्द॑नः । अ॒नि॒ऽमि॒षः । ए॒क॒ऽवी॒रः । श॒तम् । सेनाः॑ । अ॒ज॒य॒त् । सा॒कम् । इन्द्रः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् । संक्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शतं सेना अजयत्साकमिन्द्र: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आशुः । शिशानः । वृषभः । न । भीमः । घनाघनः । क्षोभणः । चर्षणीनाम् । सम्ऽक्रन्दनः । अनिऽमिषः । एकऽवीरः । शतम् । सेनाः । अजयत् । साकम् । इन्द्रः ॥ १०.१०३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 103; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (आशुः) शीघ्रकारी (शिशानः) तीक्ष्ण-प्रतापी (वृषभः-न) बल में वृषभ के समान (भीमः) भयङ्कर (घनाघनः) शत्रुओं का अत्यन्त हननकर्त्ता (चर्षणीनाम्) शत्रु मनुष्यों का (क्षोभणः) क्षुब्ध करनेवाला-घबरा देनेवाला (सङ्क्रन्दनः) हाहाकार शब्द करनेवाला-आतङ्ककारी (अनिमिषः) निमेषरहित आलस्यरहित कर्मठ (एकवीरः) अकेला वीर-वीरता में समानतारहित (शतं सेनाः) सौ सेनाओं को (साकम्-अजयत्) एक साथ जीतता है (इन्द्रः) ऐसा जो राष्ट्र में है, राजा है ॥१॥

    भावार्थ - राष्ट्र में राजा वह होना चाहिये, जो शीघ्र कार्य करनेवाला प्रतापी वृषभ के समान बल में भयङ्कर शत्रुओं को हताहत करनेवाला, उनको घबरा देनेवाला, संग्राम में हाहाकार मचा देनेवाला, आलस्य प्रमाद से रहित, वीरता में असमान, बहुत सी सेनाओं को एक साथ जीत सकता हो ॥१॥

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