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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 109/ मन्त्र 2
    ऋषिः - जुहूर्ब्रह्मजाया, ऊर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सोमो॒ राजा॑ प्रथ॒मो ब्र॑ह्मजा॒यां पुन॒: प्राय॑च्छ॒दहृ॑णीयमानः । अ॒न्व॒र्ति॒ता वरु॑णो मि॒त्र आ॑सीद॒ग्निर्होता॑ हस्त॒गृह्या नि॑नाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोमः॑ । राजा॑ । प्र॒थ॒मः । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒याम् । पुन॒रिति॑ । प्र । अ॒य॒च्छ॒त् । अहृ॑णीयमानः । अ॒नु॒ऽअ॒र्ति॒ता । वरु॑णः । मि॒त्रः । आ॒सी॒त् । अ॒ग्निः । होता॑ । ह॒स्त॒ऽगृह्य॑ । आ । नि॒ना॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमो राजा प्रथमो ब्रह्मजायां पुन: प्रायच्छदहृणीयमानः । अन्वर्तिता वरुणो मित्र आसीदग्निर्होता हस्तगृह्या निनाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोमः । राजा । प्रथमः । ब्रह्मऽजायाम् । पुनरिति । प्र । अयच्छत् । अहृणीयमानः । अनुऽअर्तिता । वरुणः । मित्रः । आसीत् । अग्निः । होता । हस्तऽगृह्य । आ । निनाय ॥ १०.१०९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 109; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (ब्रह्मजायाम्) ब्रह्म-परमात्मा की कन्यारूप या ब्राह्मपुत्र ब्रह्मचारी की जाया विद्यात्रयी-वेदत्रयी में (राजा सोमः) उसमें प्रकाशमान सोम्य गुणवाला वायु ऋषि (अहृणीयमानः) शान्त हुआ (पुनः प्र अयच्छत्) प्रथम स्वयं ग्रहण करके पश्चात् ब्रह्मा नामक ब्रह्मचारी को देता है-उपदेश करता है (अन्वर्तिता) अनुसरणकर्ता (वरुणः) अङ्गिरा ऋषि (मित्रः) आदित्य ऋषि (होता-अग्निः) होता बना अग्नि ऋषि देता है (हस्त-गृह्य) साक्षात् जैसे हाथ से पकड हाथ में देता है, वैसे विद्यात्रयी को प्राप्त कराता है ॥२॥

    भावार्थ - ब्रह्म से उत्पन्न हुई वेदत्रयी या ब्रह्मचारी की जायारूप वेदत्रयी को वायु ऋषि देता है, ब्रह्मा के लिए आदित्य ऋषि देता है, अङ्गिरा देता है, अग्नि ऋषि देता है, वह ब्रह्मा चतुर्वेदवेत्ता बन जाता है ॥२॥

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