ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
वृषा॒ वृष्णे॑ दुदुहे॒ दोह॑सा दि॒वः पयां॑सि य॒ह्वो अदि॑ते॒रदा॑भ्यः । विश्वं॒ स वे॑द॒ वरु॑णो॒ यथा॑ धि॒या स य॒ज्ञियो॑ यजतु य॒ज्ञियाँ॑ ऋ॒तून् ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । वृष्णे॑ । दु॒दु॒हे॒ । दोह॑सा । दि॒वः । पयां॑सि । य॒ह्वः । अदि॑तेः । अदा॑भ्यः । विश्व॑म् । सः । वे॒द॒ । वरु॑णः । यथा॑ । धि॒या । सः । य॒ज्ञियः॑ । य॒ज॒तु॒ । य॒ज्ञिया॑न् । ऋ॒तून् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा वृष्णे दुदुहे दोहसा दिवः पयांसि यह्वो अदितेरदाभ्यः । विश्वं स वेद वरुणो यथा धिया स यज्ञियो यजतु यज्ञियाँ ऋतून् ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । वृष्णे । दुदुहे । दोहसा । दिवः । पयांसि । यह्वः । अदितेः । अदाभ्यः । विश्वम् । सः । वेद । वरुणः । यथा । धिया । सः । यज्ञियः । यजतु । यज्ञियान् । ऋतून् ॥ १०.११.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में अग्नि शब्द से सूर्य परमात्मा गृहीत हैं और प्रधानता से अध्यात्म-राष्ट्र-समृद्धिविषयक प्रकार उपदिष्ट है।
पदार्थ -
(यह्वः) महान् (अदाभ्यः) अहिंसनीय (वृषा) सुखवृष्टिकर्ता परमात्मा या सूर्य (वृष्णे) देह में सुखवर्षक मन के लिए, राष्ट्र में सुखवर्षक राजा के लिए, पृथिवी पर जलवर्षक मेघ के लिये (अदितेः-दिवः) अनश्वर मोक्षधाम से, (पयांसि) आनन्दरसों को, जलों, जलांशों-जलकणों को (दोहसा दुदुहे) दोहनसामर्थ्य से दोहता है, (सः) परमात्मा या सूर्य (वरुणः) वरयिता होता हुआ (विश्वं वेद) सब आस्तिकमन, नास्तिकमन, सब न्यायकारी, अन्यायकारी राजा को जनता है; या सब जगत्-पृथिवीप्रदेशों को प्राप्त हुआ (यथा) जैसा ही (सः यज्ञियः) वह सङ्गमनीय (धिया) प्रज्ञा द्वारा या कर्म द्वारा (यज्ञियान्-ऋतून् यजतु) सङ्गमनीय अवसरों पर आस्तिक जनों को सुख के साथ, जड़जङ्गमों को जड़ के साथ सङ्गति करावे-कराता है ॥१॥
भावार्थ - सुखवृष्टिकर्ता महान् परमात्मा आस्तिक व नास्तिक मनवालों को तथा न्यायकारी या अन्यायकारी राजाओं को जानता है-वह सर्ववेत्ता है। अपने धाम-मोक्षधाम से आनन्दरसों की वृष्टि करता है, अपनी सर्वज्ञता से यथावसर सङ्गमनीय है, वह अपना समागमलाभ देता है। सूर्य महान् पिण्ड सब प्रदेशों पर प्रखरताप से प्राप्त हुआ मेघ में जलांशों को भरता है, वही ऋतुओं का प्रसार करनेवाला है, सङ्गमनीय है ॥१॥
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