ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 110/ मन्त्र 1
ऋषिः - जम्दग्नी रामो वा
देवता - आप्रियः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
समि॑द्धो अ॒द्य मनु॑षो दुरो॒णे दे॒वो दे॒वान्य॑जसि जातवेदः । आ च॒ वह॑ मित्रमहश्चिकि॒त्वान्त्वं दू॒तः क॒विर॑सि॒ प्रचे॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑द्धः । अ॒द्य । मनु॑षः । दु॒रो॒णे । दे॒वः । दे॒वान् । य॒ज॒सि॒ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । आ । च॒ । वह॑ । मि॒त्र॒ऽम॒हः॒ । चि॒कि॒त्वान् । त्वम् । दू॒तः । क॒विः । अ॒सि॒ । प्रऽचे॑ताः ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धो अद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान्यजसि जातवेदः । आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइद्धः । अद्य । मनुषः । दुरोणे । देवः । देवान् । यजसि । जातऽवेदः । आ । च । वह । मित्रऽमहः । चिकित्वान् । त्वम् । दूतः । कविः । असि । प्रऽचेताः ॥ १०.११०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 110; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में होमयज्ञ में कलाभवन में अग्नि का उपयोग और लाभ वर्णित हैं तथा अध्यात्मयज्ञ का अभीष्ट देव परमात्मा संसार में सिद्धि मोक्षप्राप्ति का निमित्त है।
पदार्थ -
(जातवेदः) जात-उत्पन्न हुआ ही साक्षात्भूत विद्यमान अग्नि या परमात्मन् ! तू (अद्य) अब (मनुषः) गृहस्थ मनुष्यों के या मननशील उपासक के (दुरोणे) घर में या हृदय में (देवः समिद्धः) दिव्यगुण सम्यक् दीप्त हुआ या साक्षात् हुआ (देवान् यजसि) वायु आदि देवों को हव्य देकर दिव्यगुणवाले करता है या अपना ज्ञान देकर ज्ञानवाले बनाता है (त्वम्) तू (कविः) क्रान्तदर्शी-दूर पदार्थ को दिखाता है या देखता है जानता है और जनाता है (प्रचेताः) मनुष्यों को चेताता है (च) और (त्वं मित्रमहः) तू यज्ञ करनेवालों ऋत्विजों के द्वारा महनीय प्रशंसनीय या स्तुति करनेवालों के द्वारा स्तुतियोग्य (चिकित्वान् दूतः) चेतनों का या सावधान जनों को प्रेरणाप्रद है (आ वह) भलीभाँति प्राप्त हो ॥१॥
भावार्थ - अग्नि उत्पन्न होते ही जाना जाता है, उसके प्रकाश से सब पदार्थ जाने जाते हैं, गृहस्थजन के घर में यजन कराता है, ऋत्विजों द्वारा उपयुक्त होता है, जीवों को प्रगति देता है एवं परमात्मा-सब उत्पन्न करता है, सब में विद्यमान मननशील जन के हृदय में साक्षात् होता है, स्तुति करनेवालों के द्वारा स्तुतियोग्य प्रेरणाप्रद है ॥१॥
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