ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 122/ मन्त्र 1
वसुं॒ न चि॒त्रम॑हसं गृणीषे वा॒मं शेव॒मति॑थिमद्विषे॒ण्यम् । स रा॑सते शु॒रुधो॑ वि॒श्वधा॑यसो॒ऽग्निर्होता॑ गृ॒हप॑तिः सु॒वीर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठवसु॑म् । न । चि॒त्रऽम॑हसम् । गृ॒णी॒षे॒ । वा॒मम् । शेव॑म् । अति॑थिम् । अ॒द्वि॒षे॒ण्यम् । सः । रा॒स॒ते॒ । शु॒रुधः॑ । वि॒श्वऽधा॑यसः । अ॒ग्निः । होता॑ । गृ॒हऽप॑तिः । सु॒ऽवीर्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वसुं न चित्रमहसं गृणीषे वामं शेवमतिथिमद्विषेण्यम् । स रासते शुरुधो विश्वधायसोऽग्निर्होता गृहपतिः सुवीर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठवसुम् । न । चित्रऽमहसम् । गृणीषे । वामम् । शेवम् । अतिथिम् । अद्विषेण्यम् । सः । रासते । शुरुधः । विश्वऽधायसः । अग्निः । होता । गृहऽपतिः । सुऽवीर्यम् ॥ १०.१२२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 122; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में परमात्मा स्तुति करने योग्य है, उसकी स्तुति से मोक्षप्राप्ति, जीवों के लिये भूख मिटाने, रोग नष्ट करनेवाली ओषधियाँ रची हैं इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(चित्रमहसं न) दर्शनीय महत्त्ववाले सूर्य जैसे (वसुम्) अपने ज्ञानप्रकाश में बसानेवाले अग्रणायक (वामम्) वननीय (शेवम्) सुखस्वरूप (अतिथिम्) सर्वत्र निरन्तर विभुगतिवाले (अद्विषेण्यम्) अद्वेष्टा परमात्मा को (गृणीषे) मैं स्तुत करता हूँ-स्तुति में लाता हूँ (सः) वह (गृहपतिः) शरीरघरों का पालक या हृदयघर का स्वामी (होता) दाता (अग्निः) अग्रणायक परमात्मा (विश्वधायसः) विश्व को धारण करनेवाली (शुरुधः) शीघ्र भूख तथा रोग को मिटानेवाली ओषधियों को (सुवीर्यम्) शोभन बल को (रासते) देता है ॥१॥
भावार्थ - जो परमात्मा ज्ञानप्रकाश में बसानेवाला सुखस्वरूप, सर्वत्र व्याप्त, सबको स्नेह करनेवाला, सब शरीरों हृदयगृह का स्वामी, भूख और रोग को मिटानेवाली ओषधियों तथा बल का दाता है उसकी स्तुति करनी चाहिये ॥१॥
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