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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 126/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कुल्मलबर्हिषः शैलूषिः, अंहोभुग्वा वामदेव्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    न तमंहो॒ न दु॑रि॒तं देवा॑सो अष्ट॒ मर्त्य॑म् । स॒जोष॑सो॒ यम॑र्य॒मा मि॒त्रो नय॑न्ति॒ वरु॑णो॒ अति॒ द्विष॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । तम् । अंहः॑ । न । दुः॒ऽइ॒तम् । देवा॑सः । अष्ट॑ । मर्त्य॑म् । स॒ऽजोष॑सः । यम् । अ॒र्य॒मा । मि॒त्रः । नय॑न्ति । वरु॑णः । अति॑ । द्विषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न तमंहो न दुरितं देवासो अष्ट मर्त्यम् । सजोषसो यमर्यमा मित्रो नयन्ति वरुणो अति द्विष: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । तम् । अंहः । न । दुःऽइतम् । देवासः । अष्ट । मर्त्यम् । सऽजोषसः । यम् । अर्यमा । मित्रः । नयन्ति । वरुणः । अति । द्विषः ॥ १०.१२६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 126; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अर्यमा) अरि-शत्रुओं को नियन्त्रण में रखनेवाला सूर्य, मुख्य प्राण, परमगुरु परमात्मा (मित्रः) वायु, प्राण-श्वास, अध्यापक (वरुणः) जल, अपान, प्रश्वास, उपदेशक (सजोषसः) समान सेवन से संसक्त हुए (देवासः) देव (द्विषः-अति) द्वेष करनेवालों को लाङ्घ कर (यं नयन्ति) जिस पर अनुग्रह करते हैं, (तं मर्त्यम्) उस मनुष्य को (अंहः-न दुरितं न) न घातक पाप और न दुःख रोग (अष्ट) प्राप्त होता है ॥१॥

    भावार्थ - सूर्य मुख्य प्राण, परमात्मा, वायु, अध्यापक तथा जल, अपान, उपदेशक जिसकी रक्षा करते हैं अर्थात् जो मनुष्य इन्हें अनुकूल बना लेता है, उससे द्वेष करनेवाले जन द्वेष नहीं करते और न उसे पाप व रोग प्राप्त होता है ॥१॥

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