ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 134/ मन्त्र 1
ऋषिः - मान्धाता यौवनाश्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - महापङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
उ॒भे यदि॑न्द्र॒ रोद॑सी आप॒प्राथो॒षा इ॑व । म॒हान्तं॑ त्वा म॒हीनां॑ स॒म्राजं॑ चर्षणी॒नां दे॒वी जनि॑त्र्यजीजनद्भ॒द्रा जनि॑त्र्यजीजनत् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भे इति॑ । यत् । इ॒न्द्र॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । आ॒ऽप॒प्राथ॑ । उ॒षाःऽइ॑व । म॒हान्त॑म् । त्वा॒ । म॒हीना॑म् । स॒म्ऽराज॑म् । च॒र्ष॒णी॒नाम् । दे॒वी । जनि॑त्री । अ॒जी॒ज॒न॒त् । भ॒द्रा । जनि॑त्री । अ॒जी॒ज॒न॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उभे यदिन्द्र रोदसी आपप्राथोषा इव । महान्तं त्वा महीनां सम्राजं चर्षणीनां देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥
स्वर रहित पद पाठउभे इति । यत् । इन्द्र । रोदसी इति । आऽपप्राथ । उषाःऽइव । महान्तम् । त्वा । महीनाम् । सम्ऽराजम् । चर्षणीनाम् । देवी । जनित्री । अजीजनत् । भद्रा । जनित्री । अजीजनत् ॥ १०.१३४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 134; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में राजा संग्राम में कैसे शत्रुओं को ताड़ित करे, शत्रु से धन छीनकर अपनी प्रजाओं में वितरण करे, प्रजा भी स्व सहयोगियों, पुत्रादिकों के सहित राजा की सहायता करे इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(इन्द्र) हे राजन् ! (यत्) दोनों राज-प्रजाव्यवहारों को अपनी व्याप्ति या से या तेज से (आपप्राथ) पूर्ण करता है (उषाः-इव) प्रातःकालीन प्रभा जैसे आकाश को पूर्ण करती है (महीनां चर्षणीनाम्) महती मनुष्य प्रजाओं के (त्वां महान्तं सम्राजम्) तुझ महान् सम्राट् को (जनित्री देवी) प्रसिद्ध करती है (भद्रा-जनित्री) कल्याणकारिणी राजसभा प्रसिद्ध करती है ॥१॥
भावार्थ - राजा राजशासन पर विराजकर राज-प्रजाव्यवहारों को पूर्ण करता है, वह राजसभा उसे प्रकाशित-प्रसिद्ध करती है-उसके शासन को चलाती है ॥१॥
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