ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
य॒मो नो॑ गा॒तुं प्र॑थ॒मो वि॑वेद॒ नैषा गव्यू॑ति॒रप॑भर्त॒वा उ॑ । यत्रा॑ न॒: पूर्वे॑ पि॒तर॑: परे॒युरे॒ना ज॑ज्ञा॒नाः प॒थ्या॒३॒॑ अनु॒ स्वाः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒मः । नः॒ । गा॒तुम् । प्र॒थ॒मः । वि॒वे॒द॒ । न । ए॒षा । गव्यू॑ति॒र् अप॑ऽभ॒र्त॒वै । ऊँ॒ इति॑ । यत्र॑ । नः॒ । पूर्वे॑ । पि॒तरः॑ । प॒रा॒ऽई॒युः । ए॒ना । ज॒ज्ञा॒नाः । प॒थ्याः॑ । अनु॑ । स्वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ । यत्रा न: पूर्वे पितर: परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या३ अनु स्वाः ॥
स्वर रहित पद पाठयमः । नः । गातुम् । प्रथमः । विवेद । न । एषा । गव्यूतिर् अपऽभर्तवै । ऊँ इति । यत्र । नः । पूर्वे । पितरः । पराऽईयुः । एना । जज्ञानाः । पथ्याः । अनु । स्वाः ॥ १०.१४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(यमः नः गातुं प्रथमः विवेद) समय ने ही हमारी जीवनगति को प्रथम से ही प्राप्त किया हुआ है, अत एव (एषा गव्यूतिः-न-अपभर्तवा-उ) यह कालमार्ग किसी तरह त्यागा नहीं जा सकता (यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुः) जिस मार्ग में हमसे पूर्व उत्पन्न जनक आदि पालक जन भी कुलपरम्परा से यात्रा करते चले आये हैं और (एना जज्ञानाः स्वाः पथ्या-अनु) इसी मार्ग से उत्पन्न हुए सभी प्राणी और वनस्पति आदि पदार्थ निज मार्गसंबन्धी धर्मों का अनुगमन करते हैं, अत एव उस समय को पूर्वमन्त्रानुसार होम द्वारा स्वानुकूल बनाना चाहिए ॥२॥
भावार्थ - प्रत्येक प्राणी के गर्भकाल ने ही जीवन की गति को आरम्भ कर दिया है। यावत् शरीरपात हो यह जीवनगति चलती रहती है। उस काल के अधीन होकर जनक आदि भी यात्रा करते हैं, अपितु संसार के सभी जड़-चेतन पदार्थ अपनी-अपनी प्रकृति, योनि किंवा कर्मानुसार परिणाम और पुष्प-फलादि को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार यह यात्रा सबके लिए अवश्यम्भावी है ॥२॥
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