ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
उदी॑रता॒मव॑र॒ उत्परा॑स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तर॑: सो॒म्यास॑: । असुं॒ य ई॒युर॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ई॒र॒ता॒म् । अव॑रे । उत् । परा॑सः । उत् । म॒ध्य॒माः । पि॒तरः॑ । सो॒म्यासः॑ । असु॑म् । ये । ई॒युः । अ॒वृ॒काः । ऋ॒त॒ऽज्ञाः । ते । नः॒ । अ॒व॒न्तु॒ । पि॒तरः॑ । हवे॑षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितर: सोम्यास: । असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ईरताम् । अवरे । उत् । परासः । उत् । मध्यमाः । पितरः । सोम्यासः । असुम् । ये । ईयुः । अवृकाः । ऋतऽज्ञाः । ते । नः । अवन्तु । पितरः । हवेषु ॥ १०.१५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त के प्रथम मन्त्र की व्याख्या निरुक्त में की गई है, जो नीचे मन्त्रभाष्य में उद्धृत है। उसमें निरुक्तकार ने आधिदैविक विषय को दर्शाया है। तथा ‘तस्मान्माध्यमिकान् पितॄन् मन्यन्ते’ इस निरुक्तवचन से भी विशेष स्पष्टीकरण हो जाता है। सम्पूर्ण सूक्त के देवता पितर हैं और इसमें मुख्यरूपेण यज्ञप्रक्रिया का विधान है, जिसमें दो प्रकार के पितर उपयुक्त होते हैं। एक जड़ पितर सूर्य की रश्मियाँ, दूसरे चेतन पितर ज्ञानी लोग। लोकप्रत्यक्ष भी यही है। यज्ञ का उत्तम उपयोग बिना सूर्यकिरणों और ज्ञानी पुरुषों के नहीं हो सकता, अत एव सूर्योदय के पश्चात् से सूर्यास्त से पूर्व-पूर्व यज्ञ करने का याज्ञिक सिद्धान्त है तथा ब्रह्मा, अध्वर्यु, उद्गाता, होता आदि ज्ञानी जनों के द्वारा यज्ञ करने का आदेश भी है। अत एव इस सूक्त में संक्षेप से यज्ञप्रक्रियाविज्ञान है। साथ-साथ पितृपरिचय, ज्ञानजनों का यज्ञ में कर्तव्य और सूर्यरश्मियों का उपयोगविज्ञान दर्शाया है। यज्ञ के तीन सवन, पृथिवीभ्रमण से अहोरात्रवृत में सूर्यरश्मियों के मुख्यस्थान या केन्द्र, यज्ञ के योग से किरणों का पोषक और बलदायक बनना, बुद्धि का विकसित करना, उदित, तृप्त और शान्त रश्मियों का वर्तन, उत्तरायण और दक्षिणायन में सूर्यरश्मियों का यज्ञ में लाभ और यज्ञाहुति का रश्मियों द्वारा प्रसार, ज्ञानी जनों के द्वारा यज्ञ का सेवन और उनका सत्कार, निज सन्देहों या प्रश्नों का उनसे समाधान तथा उपदेश प्राप्त करना आदि-आदि उपयोगी बातों का वर्णन है।
पदार्थ -
(अवरे पितरः सोम्यासः उदीरताम्-उत्-मध्यमाः उत्-परासः) उत्पन्न हुए जगत् पदार्थों में रस को सम्पादन करनेवाली प्रातःसवनीय सूर्यरश्मियाँ उन जगत्पदार्थों को उन्नत करती हैं एवं मध्यसवन और तृतीयसवन की रश्मियाँ भी उनको उन्नत करती हैं, जब कि यज्ञ से संयुक्त हुई रश्मियाँ फैलती हैं (ये-असुम् ईयुः-अवृकाः-ऋतज्ञाः-ते पितरः नः हवेषु-अवन्तु) और वे सूर्यरश्मियाँ जीवमात्र में सङ्गत होती हैं, अतएव हम से संश्लिष्ट होकर यज्ञ के उपयुक्त ज्ञान की साधक बन हमारे आन्तरिक विकासों में उन्नति के लिए प्राप्त होती हैं ॥१॥
भावार्थ - यज्ञ के योग से सूर्य की रश्मियाँ जड़-चेतन प्राणीमात्र के जीवनरस को उन्नत करनेवाली बनती हैं। अत एव यज्ञ के उपयोग-ज्ञान से उन रश्मियों को अपने जीवन के लिये उन्नायक बनावें ॥१॥
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