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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 152 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 152/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शासो भारद्वाजः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अपे॑न्द्र द्विष॒तो मनोऽप॒ जिज्या॑सतो व॒धम् । वि म॒न्योः शर्म॑ यच्छ॒ वरी॑यो यवया व॒धम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । इ॒न्द्र॒ । द्वि॒ष॒तः । मनः॑ । अप॑ । जिज्या॑सतः । व॒धम् । वि । म॒न्योः । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । वरी॑यः । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपेन्द्र द्विषतो मनोऽप जिज्यासतो वधम् । वि मन्योः शर्म यच्छ वरीयो यवया वधम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । इन्द्र । द्विषतः । मनः । अप । जिज्यासतः । वधम् । वि । मन्योः । शर्म । यच्छ । वरीयः । यवय । वधम् ॥ १०.१५२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 152; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (इन्द्र) हे राजन् ! (द्विषतः) शत्रु के (मनः) मन को (अप) अपगत कर-अस्त-व्यस्त कर-भ्रान्त कर (जिज्यासतः) हमारी वयोहानि को चाहनेवाले के (वधम्) वधक शस्त्रप्रहार को (अप) नष्ट-भ्रष्ट कर (मन्योः) मन्युवाले या अभिमानी शत्रु के (वरीयः शर्म) बहुत सुखविशेष को (वि यच्छ) विशेषरूप से दे (वधं यवय) उसके वधक प्रहार को दूर कर-पृथक् कर ॥५॥

    भावार्थ - राजा शत्रु के मन को भ्रान्त करे और वयोहानि चाहते हुए के वधकसाधन को भी नष्ट-भ्रष्ट और अस्त-व्यस्त करे, क्रोधी और अभिमानी शत्रु के सुख-साधन को प्रजा में बाँट देना चाहिये ॥५॥

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