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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 170/ मन्त्र 2
वि॒भ्राड्बृ॒हत्सुभृ॑तं वाज॒सात॑मं॒ धर्म॑न्दि॒वो ध॒रुणे॑ स॒त्यमर्पि॑तम् । अ॒मि॒त्र॒हा वृ॑त्र॒हा द॑स्यु॒हन्त॑मं॒ ज्योति॑र्जज्ञे असुर॒हा स॑पत्न॒हा ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽभ्राट् । बृ॒हत् । सुऽभृ॑तम् । वा॒ज॒ऽसात॑मम् । धर्म॑म् । दि॒वः । ध॒रुणे॑ । स॒त्यम् । अर्पि॑तम् । अ॒मि॒त्र॒ऽहा । वृ॒त्र॒ऽहा । द॒स्यु॒हन्ऽत॑मम् । ज्योतिः॑ । ज॒ज्ञे॒ । अ॒सु॒र॒ऽहा । स॒प॒त्न॒ऽहा ॥
स्वर रहित मन्त्र
विभ्राड्बृहत्सुभृतं वाजसातमं धर्मन्दिवो धरुणे सत्यमर्पितम् । अमित्रहा वृत्रहा दस्युहन्तमं ज्योतिर्जज्ञे असुरहा सपत्नहा ॥
स्वर रहित पद पाठविऽभ्राट् । बृहत् । सुऽभृतम् । वाजऽसातमम् । धर्मम् । दिवः । धरुणे । सत्यम् । अर्पितम् । अमित्रऽहा । वृत्रऽहा । दस्युहन्ऽतमम् । ज्योतिः । जज्ञे । असुरऽहा । सपत्नऽहा ॥ १०.१७०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 170; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(विभ्राट्-ज्योतिः) विशेष प्रकाशमान ज्योति (बृहत् सुभृतम्) महान् उत्तमरूप से रखी हुई (दस्युहन्तमम्) क्षीण करनेवाले का नाशक (सत्यम्) स्थिर (दिवः) द्युलोक के (धर्मन् धरुणे) धारक प्रतिष्ठान में (अर्पितम्) स्वतः समर्पित या ईश्वर के द्वारा समर्पित (वाजसातमम्) अत्यन्त अन्नदेनेवाली-अन्नदाता है (अमित्रहा) शत्रुनाशक (वृत्रहा) मेघनाशक (असुरहा) दुष्टप्राणिनाशक (सपत्नहा) विरोधीगणनाशक (जज्ञे) सूर्य प्रसिद्ध हुआ है ॥२॥
भावार्थ - आकाश में सूर्य की महज्ज्योति है, जो अन्धकार को नष्ट करती है, द्युलोक के धारक प्रतिष्ठान में वर्त्तमान है, अन्न की उत्पत्ति का हेतु है, वह सूर्य मेघ का नाशक, मनुष्य के शत्रुओं का नाशक, दुष्टों तथा विरोधी गणों का नाशक है, ऐसे सूर्य का सेवन करना चाहिये ॥२॥
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