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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 172 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 172/ मन्त्र 1
    ऋषिः - संवर्तः देवता - उषाः छन्दः - पिपीलिकामध्यागायत्री स्वरः - षड्जः

    आ या॑हि॒ वन॑सा स॒ह गाव॑: सचन्त वर्त॒निं यदूध॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒हि॒ । वन॑सा । स॒ह । गावः॑ । स॒च॒न्त॒ । वर्त॒निम् । यत् । ऊध॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ याहि वनसा सह गाव: सचन्त वर्तनिं यदूधभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । याहि । वनसा । सह । गावः । सचन्त । वर्तनिम् । यत् । ऊधऽभिः ॥ १०.१७२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 172; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (वनसा सह) हे उषा के समान गृह देवी ! तू वननीय-कमनीय तेज या रूप के साथ (आ याहि) प्राप्त हो (यत्) जब (गावः) घर की गौवें (ऊधभिः) दूध भरे अङ्गों से (वर्तनिम्) वर्तनी-कोठी या बाल्टी जैसे बड़े बर्तन को (सचन्ते) सींचती-भर देती हैं ॥१॥

    भावार्थ - विवाह के अनन्तर पति नववधू को घर ले जाते हुए घर के दृश्यों को दिखाता है, घर में दूध भरे हुए अङ्गोंवाली गौवें बड़े बर्तन को भर देती हैं। दूध का उपयोग मक्खन निकालना आदि का कृत्य गृहिणी के सुपुर्द कर देना चाहिये ॥१॥

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