ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 173/ मन्त्र 1
आ त्वा॑हार्षम॒न्तरे॑धि ध्रु॒वस्ति॒ष्ठावि॑चाचलिः । विश॑स्त्वा॒ सर्वा॑ वाञ्छन्तु॒ मा त्वद्रा॒ष्ट्रमधि॑ भ्रशत् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । अ॒हा॒र्ष॒म् । अ॒न्तः । ए॒धि॒ । ध्रु॒वः । ति॒ष्ठ॒ । अवि॑ऽचाचलिः । विशः॑ । त्वा॒ । सर्वाः॑ । वा॒ञ्छ॒न्तु॒ । मा । त्वत् । रा॒ष्ट्रम् । अधि॑ । भ्र॒श॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वाहार्षमन्तरेधि ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलिः । विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रमधि भ्रशत् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । अहार्षम् । अन्तः । एधि । ध्रुवः । तिष्ठ । अविऽचाचलिः । विशः । त्वा । सर्वाः । वाञ्छन्तु । मा । त्वत् । राष्ट्रम् । अधि । भ्रशत् ॥ १०.१७३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 173; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
विषय - स सूक्त में राजा शासन अधिकार प्राप्त करके प्रजा को सुखी करे, राष्ट्र को दृढ़ समृद्ध करे, उस में अन्य राज्याधिकारियों विद्वानों के साथ सुराज्य बनावे, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(त्वा) हे राजन् ! मैं पुरोहित राजसूययज्ञ में तुझे राष्ट्र के स्वामी होने के लिये राजसूयवेदी पर (आहार्षम्) लाया हूँ-लाता हूँ (अन्तः-एधि) हमारे मध्य में स्वामी हो (ध्रुवः) ध्रुव (अविचाचलिः-तिष्ठ) राजपद पर नियत-अविचलित हुआ प्रतिष्ठित हो (सर्वाः-विशः) सारी प्रजाएँ (त्वा वाञ्छन्तु) तुझे चाहें चाहती हैं (त्वत्-राष्ट्रम्) तुझसे-तेरे शासन से राष्ट्र (मा-भ्रशत्) नष्ट न हो ॥१॥
भावार्थ - पुरोहित राजा को राजसूययज्ञ में वेदी पर प्रतिष्ठित करता है और सारी प्रजाएँ उसे चाहें, राजा को इस प्रकार शासन करना चाहिये कि प्रजाएँ सब सुखी रहें, प्रसन्न रहें और राष्ट्र विपत्ति को प्राप्त न हो ॥१॥
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