ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
यं त्वा॒ द्यावा॑पृथि॒वी यं त्वाप॒स्त्वष्टा॒ यं त्वा॑ सु॒जनि॑मा ज॒जान॑ । पन्था॒मनु॑ प्रवि॒द्वान्पि॑तृ॒याणं॑ द्यु॒मद॑ग्ने समिधा॒नो वि भा॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । त्वा॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । यम् । त्वा॒ । आपः॑ । त्वष्टा॑ । यम् । त्वा॒ । सु॒ऽजमि॑मा । ज॒जान॑ । पन्था॑म् । अनु॑ । प्र॒ऽवि॒द्वान् । पि॒तृ॒ऽयान॑म् । द्यु॒ऽमत् । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइ॒धा॒नः । वि । भा॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं त्वा द्यावापृथिवी यं त्वापस्त्वष्टा यं त्वा सुजनिमा जजान । पन्थामनु प्रविद्वान्पितृयाणं द्युमदग्ने समिधानो वि भाहि ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । त्वा । द्यावापृथिवी इति । यम् । त्वा । आपः । त्वष्टा । यम् । त्वा । सुऽजमिमा । जजान । पन्थाम् । अनु । प्रऽविद्वान् । पितृऽयानम् । द्युऽमत् । अग्ने । सम्ऽइधानः । वि । भाहि ॥ १०.२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 7
पदार्थ -
(यं त्वा) जिस तुझ तीनों लोकों में वर्त्तमान महान् अग्नि अर्थात् सूर्य, विद्युत् और अग्नि को (द्यावापृथिवी) द्युलोक सूर्यरूप से पृथिवी अग्निरूप से (यं त्वा) जिस तुझको (आपः) अन्तरिक्ष विद्युद्रूप से (यं त्वा) जिस तुझको (सुजनिमा त्वष्टा) सुगमतया उत्पन्न करनेवाला शीघ्र व्यापी परमात्मा (जजान) सर्वरूप से उत्पन्न करता है, वह तू (पितृयाणं पन्थाम्-अनु प्रविद्वान्) संवत्सर के गतिमार्ग को जिससे प्रबुद्धरूप से जाना जाय, ऐसा तू (द्युमत्-समिधानः-विभाहि) दीप्तिवाली शक्ति से प्रकाशित हुआ जगत् को विशेषरूप से चमका ॥७॥
भावार्थ - परमात्मा अनायास तीनों लोकों में बृहन् अग्नि को उत्पन्न करता है, जिसे द्युलोक सूर्यरूप में, अन्तरिक्ष विद्युद्रूप में, पृथिवी अग्निरूप में पुनः प्रकट करता है। ऐसा वह बृहत् अग्नि वर्ष-परिमाण को बतलाता हुआ अपनी दीप्ति से जगत् को प्रकाशित करता है। विद्यासूर्य विद्वान् को समग्र ज्ञान से सम्पादन के लिये गुरुकुल बनाने में राज्याधिकारी और प्रजाजन भी पूरा साहाय्य देवें ॥७॥
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