ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 22/ मन्त्र 15
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पिबा॑पि॒बेदि॑न्द्र शूर॒ सोमं॒ मा रि॑षण्यो वसवान॒ वसु॒: सन् । उ॒त त्रा॑यस्व गृण॒तो म॒घोनो॑ म॒हश्च॑ रा॒यो रे॒वत॑स्कृधी नः ॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑ऽपिब । इत् । इ॒न्द्र॒ । शू॒र॒ । सोम॑म् । मा । रि॒ष॒ण्यः॒ । व॒स॒वा॒न॒ । वसुः॑ । सन् । उ॒त । त्रा॒य॒स्व॒ । गृ॒ण॒तः । म॒घोनः॑ । म॒हः । च॒ । रा॒यः । रे॒वतः॑ । कृ॒धि॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबापिबेदिन्द्र शूर सोमं मा रिषण्यो वसवान वसु: सन् । उत त्रायस्व गृणतो मघोनो महश्च रायो रेवतस्कृधी नः ॥
स्वर रहित पद पाठपिबऽपिब । इत् । इन्द्र । शूर । सोमम् । मा । रिषण्यः । वसवान । वसुः । सन् । उत । त्रायस्व । गृणतः । मघोनः । महः । च । रायः । रेवतः । कृधि । नः ॥ १०.२२.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 22; मन्त्र » 15
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
पदार्थ -
(शूर वसवान-इन्द्र) हे पराक्रमी अपने गुणों से आच्छादित करनेवाले परमात्मन् या राजन् ! (वसुः-सन्) तू मोक्ष में बसानेवाला होता हुआ या राष्ट्र में बसानेवाला होता हुआ (मा रिषण्यः) हमें हिंसित न कर (सोमं पिब पिब) अध्यात्मयज्ञ में उपासनारस का पुनः-पुनः पान कर या राजसूययज्ञ में हमारे दिये सोमरस को पी तथा राष्ट्रभूमि में सम्यगुत्पन्न अन्नभाग को पुनः-पुनः स्वीकार कर (उत) तथा (नः-गृणतः-मघोनः-त्रायस्व) हमें स्तुति करनेवालों को कृषि करनेवालों को (च) और (महः-रायः-रेवतः कृधि) महान् मोक्ष ऐश्वर्ययुक्त कर या महत् अन्नादि धन से धनी कर ॥१५॥
भावार्थ - अपने गुणों से आच्छादित करनेवाला परमात्मा तथा राजा उपासकों तथा प्रजाओं को बसानेवाला होता है। उपासकों के उपासना-रस को स्वीकार करता है तथा राजा राजसूययज्ञ में प्रजा द्वारा दिये सोमरस तथा भूमि में उत्पन्न अन्नादि भार को स्वीकार करता है। परमात्मा की स्तुति करनेवाले उपासकों की परमात्मा रक्षा करता है और उन्हें मोक्ष प्रदान करता है। राजा भी श्रेष्ठाचारी जनों की रक्षा करता है और उन्हें सम्पन्न बनाता है ॥१५॥
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