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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    ऋषिः - इन्द्रवसुक्रयोः संवाद ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्वो॒ ह्य१॒॑न्यो अ॒रिरा॑ज॒गाम॒ ममेदह॒ श्वशु॑रो॒ ना ज॑गाम । ज॒क्षी॒याद्धा॒ना उ॒त सोमं॑ पपीया॒त्स्वा॑शित॒: पुन॒रस्तं॑ जगायात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वः॑ । हि । अ॒न्यः । अ॒रिः । आ॒ज॒गाम॑ । मम॑ । इत् । अह॑ । श्वशु॑रः । न । आ । ज॒गा॒म॒ । ज॒क्षी॒यात् । धा॒नाः । उ॒त । सोम॑म् । प॒पी॒या॒त् । सुऽआ॑शितः । पुनः॑ । अस्त॑म् । ज॒गा॒या॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वो ह्य१न्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम । जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात्स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वः । हि । अन्यः । अरिः । आजगाम । मम । इत् । अह । श्वशुरः । न । आ । जगाम । जक्षीयात् । धानाः । उत । सोमम् । पपीयात् । सुऽआशितः । पुनः । अस्तम् । जगायात् ॥ १०.२८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (विश्वः-अन्यः-अरिः-हि) शरीर का सब अन्य स्वामिवर्ग-प्राणगण (आजगाम) प्राप्त हो गया-प्रकट हो गया (अह) खेद है कि (मम-इत्) मेरा ही (श्वशुरः-न-आजगाम) शु-शीघ्र अशुर-प्रापणशील आत्मा मुझ देह का नहीं आया-प्रकट हुआ या राजनीति का चालक राजा स्थापित नहीं हुआ, यह वसुक्र आत्मा के वास-शरीर को करनेवाला प्राण या राष्ट्र में राष्ट्रमन्त्री है (धानाः-जक्षीयात्-उत सोमं पपीयात्) शरीर में प्राण या राष्ट्रमन्त्री अन्न भोगों को भोगे, सोमादि ओषधिरसों का पान करे (सु-आशितः पुनः-अस्तं जगायात्) भोगों को भली प्रकार भोगकर पुनः अपने अमृतघर-मोक्ष को या स्वप्रतिष्ठापद को प्राप्त होवे ॥१॥

    भावार्थ - जब शरीर बनना आरम्भ होता है, तब प्राण प्रथम से ही अपना कार्य आरम्भ कर देता है। आत्मा उस समय स्वज्ञानशक्ति से कार्य आरम्भ नहीं करता है। जब वह कार्य आरम्भ करने लगता है, तब जन्म पाकर संसार में अन्नादि को भोगता है और सोमादि ओषधियों का रस पान करता है। इस प्रकार संसार के भोगों को भोगकर वह अमर धाम मोक्ष को भी प्राप्त होता है। इस प्रकार राष्ट्र में राष्ट्रमन्त्री प्रथम राष्ट्र की व्यवस्था करता है। पुनः राष्ट्रपतिशासन अधिकार सम्भालता है। वह राष्ट्र में भाँति-भाँति के भोगों को भोगता है और सोमादि ओषधियों का रसपान करता है, अपने ऊँचे प्रतिष्ठापद को प्राप्त करता है ॥१॥

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