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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कृ॒ष्णां यदेनी॑म॒भि वर्प॑सा॒ भूज्ज॒नय॒न्योषां॑ बृह॒तः पि॒तुर्जाम् । ऊ॒र्ध्वं भा॒नुं सूर्य॑स्य स्तभा॒यन्दि॒वो वसु॑भिरर॒तिर्वि भा॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒ष्णाम् । यत् । एनी॑म् । अ॒भि । वर्प॑सा । भूत् । ज॒नय॑न् । योषा॑म् । बृ॒ह॒तः । पि॒तुः । जाम् । ऊ॒र्ध्वम् । भा॒नुम् । सूर्य॑स्य । स्त॒भा॒यन् । दि॒वः । वसु॑ऽभिः । अ॒र॒तिः । वि । भा॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृष्णां यदेनीमभि वर्पसा भूज्जनयन्योषां बृहतः पितुर्जाम् । ऊर्ध्वं भानुं सूर्यस्य स्तभायन्दिवो वसुभिररतिर्वि भाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृष्णाम् । यत् । एनीम् । अभि । वर्पसा । भूत् । जनयन् । योषाम् । बृहतः । पितुः । जाम् । ऊर्ध्वम् । भानुम् । सूर्यस्य । स्तभायन् । दिवः । वसुऽभिः । अरतिः । वि । भाति ॥ १०.३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (बृहतः-पितुः-जाम्) महान् द्युलोक की कन्या उषा को (योषां जनयन्) सहयोगिनी बनाता हुआ सूर्य (यत्-कृष्णाम्-एनीम्) जब प्रवाहशीला नदी जैसी कृष्ण वर्णवाली रात्रि को (वर्पसा-अभिभूत्) अपने तेज से अभिभूत करता है, दबा लेता है, तब पृथिवी पर दिन होता है, परन्तु जब (सूर्यस्य भानुम्-ऊर्ध्वं स्तभायन्) सूर्य अपनी ज्योति-प्रकाश को पृथिवी से ऊपर आकाश में रोके हुए भी-रोक लेने पर भी (अरतिः- दिवः-वसुभिः-विभाति) सर्वत्र प्राप्त सूर्य द्युलोक के वासी चन्द्र ग्रह तारों के साथ प्रतिफलित हो प्रकाश देता है ॥२॥

    भावार्थ - आकाश में फैलनेवाली उषा को अपनाकर सूर्य अपने तेज से रात्रि को दबा लेता है, तो पृथिवी पर दिन प्रकट होता है और जब सूर्य अपनी ज्योति को पृथिवी से परे आकाश में रोक लेता है तो रात्रि हो जाती है तब भी सूर्य आकाश के ग्रह तारों में प्रतिफलित होता है और उन्हें प्रकाशित करता है। दिन में पृथिवी को प्रकाशित करता हुआ दीखता है, रात्रि में ग्रह तथा नक्षत्रों को प्रकाशित करता है। ऐसे ही विद्यासूर्य विद्वान् महान् पिता परमात्मा की वेदविद्यारूपी ज्ञानज्योति को अपनाकर सदा उसे संसार में फैलाते हैं, साक्षात् सभाओं में, असाक्षात् घर परिवारों में-दिन में विद्यालयों में रात्रि को जनसाधारण में ॥२॥

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