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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 35/ मन्त्र 4
    ऋषिः - लुशो धानाकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराडार्चीजगती स्वरः - निषादः

    इ॒यं न॑ उ॒स्रा प्र॑थ॒मा सु॑दे॒व्यं॑ रे॒वत्स॒निभ्यो॑ रे॒वती॒ व्यु॑च्छतु । आ॒रे म॒न्युं दु॑र्वि॒दत्र॑स्य धीमहि स्व॒स्त्य१॒॑ग्निं स॑मिधा॒नमी॑महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । नः॒ । उ॒स्रा । प्र॒थ॒मा । सु॒ऽदे॒व्य॑म् । रे॒वत् । स॒निऽभ्यः॑ । रे॒वती॑ । वि । उ॑च्छतु । आ॒रे । म॒न्युम् । दुः॒ऽवि॒दत्र॑स्य । धी॒म॒हि॒ । स्व॒स्ति । अ॒ग्निम् । स॒म्ऽइ॒धा॒नम् । ई॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयं न उस्रा प्रथमा सुदेव्यं रेवत्सनिभ्यो रेवती व्युच्छतु । आरे मन्युं दुर्विदत्रस्य धीमहि स्वस्त्य१ग्निं समिधानमीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । नः । उस्रा । प्रथमा । सुऽदेव्यम् । रेवत् । सनिऽभ्यः । रेवती । वि । उच्छतु । आरे । मन्युम् । दुःऽविदत्रस्य । धीमहि । स्वस्ति । अग्निम् । सम्ऽइधानम् । ईमहे ॥ १०.३५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 35; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (इयं प्रथमा-उस्रा रेवती वि उच्छतु) यह प्रकृष्ट विस्तृत विकास करनेवाली पुष्टिमति-पुष्टिप्रदा या रेतस्वती-मनुष्य सनातन शक्तिवाली वधू घर में विशेषरूप से प्रभावशाली हो (सनिभ्यः-रेवत्-सुदेव्यम्) सेवन करनेवाले हम भागीदारों के लिये पुष्टिवाले ज्ञान और सन्तान को प्रदान करे (दुर्विदत्रस्य मन्युम्-आरे धीमहि) कठिनता से जानने योग्य परमात्मा के मननीय स्वरूप को समीपरूप में धारण करें (समिधानम्-अग्निं स्वस्ति-ईमहे) आगे अर्थ पूर्ववत् ॥४॥

    भावार्थ - घर में विकसित हुई उषा या प्राप्त होती हुई नव वधू घर एवं परिवार का विकास करती हुई आती है। घर में रहनेवाले पारिवारिक जनों के लिए प्रकाश और सन्तान को प्रदान करती है। उस द्वारा सन्ध्या आदि धर्माचरण से गृहस्थ परमात्मा की ओर चलता है ॥४॥

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