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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यं त्वा॒ जना॑सो अ॒भि सं॒चर॑न्ति॒ गाव॑ उ॒ष्णमि॑व व्र॒जं य॑विष्ठ । दू॒तो दे॒वाना॑मसि॒ मर्त्या॑नाम॒न्तर्म॒हाँश्च॑रसि रोच॒नेन॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्वा॒ । जना॑सः । अ॒भि । स॒म्ऽचर॑न्ति । गावः॑ । उ॒ष्णम्ऽइ॑व । व्र॒जम् । य॒वि॒ष्ठ॒ । दू॒तः । दे॒वाना॑म् । अ॒सि॒ । मर्त्या॑नाम् । अ॒न्तः । म॒हान् । च॒र॒सि॒ । रो॒च॒नेन॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वा जनासो अभि संचरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ । दूतो देवानामसि मर्त्यानामन्तर्महाँश्चरसि रोचनेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । त्वा । जनासः । अभि । सम्ऽचरन्ति । गावः । उष्णम्ऽइव । व्रजम् । यविष्ठ । दूतः । देवानाम् । असि । मर्त्यानाम् । अन्तः । महान् । चरसि । रोचनेन ॥ १०.४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (यविष्ठ) हे युवतम-न उत्पन्न होनेवाला होने से बाल्य वार्ध‌‌‍‍क्य से रहित सद युवा परमात्मन् ! (जनासः) जन (यं त्वा-अभि सञ्चरन्ति) जिस तुझको सब ओर से सम्प्राप्त करते हुए अपने को तेरे अन्दर विराजमान समझते हैं (गावः-उष्णां व्रजम्-इव) जैसे कि गौएँ शीतपीड़ित होने पर उष्ण-गरम शीतनिवारक गोस्थान-गोशाला को सम्प्राप्त करती हैं, (देवानां मर्त्यानाम्) मुमुक्षुओं और साधारण जनों का (दूतः-असि) सन्मार्गप्रेरक दुःखनिवारक है, यतः (महान् रोचनेन-अन्तः-चरसि) तू महान् होता हुआ अपने प्रकाशमय तेज से सबके अन्दर व्याप्त है ॥२॥

    भावार्थ - परमात्मा उत्पत्तिरहित होने से बाल्य और वार्धक्य से रहित सदा युवा है। जनमात्र उसकी शरण लेते हैं, जैसे शीतपीड़ित गौएँ गोशाला की। परमात्मा मुमुक्षु और साधारण जनों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, दुःख का निवारक है, वह प्रभावकारी तेज से सब में व्याप्त है, उसकी उपासना करनी चाहिये ॥२॥

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