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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
    ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒हमिन्द्रो॒ रोधो॒ वक्षो॒ अथ॑र्वणस्त्रि॒ताय॒ गा अ॑जनय॒महे॒रधि॑ । अ॒हं दस्यु॑भ्य॒: परि॑ नृ॒म्णमा द॑दे गो॒त्रा शिक्ष॑न्दधी॒चे मा॑त॒रिश्व॑ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । इन्द्रः॑ । रोधः॑ । वक्षः॑ । अथ॑र्वणः । त्रि॒तायः॑ । गाः । अ॒ज॒न॒य॒म् । अहेः॑ । अधि॑ । अ॒हम् । दस्यु॑ऽभ्यः । परि॑ । नृ॒म्णम् । आ । द॒दे॒ । गो॒त्रा । शिक्ष॑न् । द॒धी॒चे । मा॒त॒रिश्व॑ने ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहमिन्द्रो रोधो वक्षो अथर्वणस्त्रिताय गा अजनयमहेरधि । अहं दस्युभ्य: परि नृम्णमा ददे गोत्रा शिक्षन्दधीचे मातरिश्वने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । इन्द्रः । रोधः । वक्षः । अथर्वणः । त्रितायः । गाः । अजनयम् । अहेः । अधि । अहम् । दस्युऽभ्यः । परि । नृम्णम् । आ । ददे । गोत्रा । शिक्षन् । दधीचे । मातरिश्वने ॥ १०.४८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 48; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (अहम्-इन्द्रः) मैं ऐश्वर्यवान् परमात्मा (अथर्वणः) अचल योगी का-अहिंसक विद्वान् का (वक्षः-रोधः) ज्ञानप्रकाशक का अज्ञाननिवारक हूँ (त्रिताय-अहेः-गाः-अधि-अजनयम्) स्तुति-प्रार्थना-उपासना तीनों का विस्तार करनेवाले आध्यात्मिक और पापनाशक जन के लिए मैं वेदवाणियों को उत्पन्न करता हूँ (अहम्) मैं परमात्मा (दस्युभ्यः-नृम्णं परि आ वदे) अन्यों के पीडक जन के धन को स्वाधीन करता हूँ-लेता हूँ (मातरिश्वने दधीचे गोत्रा-शिक्षन्) माता के गर्भ में जानेवाले अर्थात् ध्यानी जीवात्मा के लिए सामान्य वाणियों को देता हूँ ॥२॥

    भावार्थ - परमात्मा योगी-स्तुति प्रार्थना उपासना करनेवाले पापरहित आत्मा के लिए वेदज्ञान का उपदेश देता है और साधारण जनों के लिए सामान्य वाणी देता है।  अज्ञानी दुष्ट मनुष्य की सम्पत्ति, शक्ति को नष्ट कर देता है ॥२॥

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