ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः
देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
प्र वो॑ म॒हे मन्द॑माना॒यान्ध॒सोऽर्चा॑ वि॒श्वान॑राय विश्वा॒भुवे॑ । इन्द्र॑स्य॒ यस्य॒ सुम॑खं॒ सहो॒ महि॒ श्रवो॑ नृ॒म्णं च॒ रोद॑सी सप॒र्यत॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । म॒हे । मन्द॑मानाय । अन्ध॑सः । अर्च॑ । वि॒श्वान॑राय । वि॒श्व॒ऽभुवे॑ । इन्द्र॑स्य । यस्य॑ । सुऽम॑खम् । सहः॑ । महि॑ । श्रवः॑ । नृ॒म्णम् । च॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । स॒प॒र्यतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो महे मन्दमानायान्धसोऽर्चा विश्वानराय विश्वाभुवे । इन्द्रस्य यस्य सुमखं सहो महि श्रवो नृम्णं च रोदसी सपर्यत: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वः । महे । मन्दमानाय । अन्धसः । अर्च । विश्वानराय । विश्वऽभुवे । इन्द्रस्य । यस्य । सुऽमखम् । सहः । महि । श्रवः । नृम्णम् । च । रोदसी इति । सपर्यतः ॥ १०.५०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में इन्द्र शब्द से परमात्मा गृहीत है। वह उपासकों का विशेष हितकर, ज्ञानदाता, रक्षक, मोक्षदाता, सब योजनाओं में स्तुतियोग्य है, इत्यादि विषय वर्णित हैं ।
पदार्थ -
(वः) हे उपासको ! तुम (अन्धसः-मन्दमानाय) आध्यान-समन्तरूप से ध्यान करने से प्रसन्न होनेवाले (विश्वानराय) विश्व के नेता (विश्वाभुवे) विश्व के अन्दर व्यापक (महे-इन्द्रस्य) महान् ऐश्वर्यवान् परमात्मा के लिए (प्र-अर्च) प्रकृष्टरूप से अर्चना-स्तुति करो (यस्य) जिस परमात्मा का (सुमखं सहः-महिश्रवः-नृम्णं च) सुमहान् बल और महान् श्रवणीय यश मनुष्यों में प्राप्त अध्यात्मसुख है, तथा (रोदसी सपर्यतः) द्यावापृथिवी-वहाँ रहनेवाले ज्ञानकर्मशील नर-नारी प्रशंसा करते हैं, मानते हैं ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा विश्व का नायक और विश्व में व्यापक है। उसका महान् बल और महान् यश मुमुक्षु उपासकों के प्रति झुका हुआ है तथा ज्ञानशील और कर्मशील नर-नारी उसकी प्रशंसा करते हैं, मानते हैं ॥१॥
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