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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
    ऋषिः - देवाः देवता - अग्निः सौचीकः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यमैच्छा॑म॒ मन॑सा॒ सो॒३॒॑ऽयमागा॑द्य॒ज्ञस्य॑ वि॒द्वान्परु॑षश्चिकि॒त्वान् । स नो॑ यक्षद्दे॒वता॑ता॒ यजी॑या॒न्नि हि षत्स॒दन्त॑र॒: पूर्वो॑ अ॒स्मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । ऐच्छा॑म । मन॑सा । सः । अ॒यम् । आ । अ॒गा॒त् । य॒ज्ञस्य॑ । वि॒द्वान् । परु॑षः । चि॒कि॒त्वान् । सः । नः॒ । य॒क्ष॒त् । दे॒वऽता॑ता । यजी॑यान् । नि । हि । स॒त्स॒त् । अन्त॑रः । पूर्वः॑ । अ॒स्मत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमैच्छाम मनसा सो३ऽयमागाद्यज्ञस्य विद्वान्परुषश्चिकित्वान् । स नो यक्षद्देवताता यजीयान्नि हि षत्सदन्तर: पूर्वो अस्मत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । ऐच्छाम । मनसा । सः । अयम् । आ । अगात् । यज्ञस्य । विद्वान् । परुषः । चिकित्वान् । सः । नः । यक्षत् । देवऽताता । यजीयान् । नि । हि । सत्सत् । अन्तरः । पूर्वः । अस्मत् ॥ १०.५३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (यं मनसा-ऐच्छाम) हम मनोभाव से जिस आत्मा को चाहते थे, (सः-अयम्-आगात्) वह यह आता है, (यज्ञस्य विद्वान्) जो शरीर यज्ञ का अनुभव करनेवाला अपने को जानता है कि मैं यहाँ हूँ (परुषः-चिकित्वान्) इस शरीर के सारे अङ्ग प्रत्यङ्गों को चेतनायुक्त करता है (सः-यजीयान्-नः-देवताता यक्षत्) वह अतिशय से संगतिकर्ता हम देवों के शरीरयज्ञ में या विद्वत्संगति में संगत-प्राप्त होता है, अतः (अस्मत् पूर्वः-हि) हमारे से पूर्व ही (अन्तः-निषत्सत्) शरीर के अन्दर या सभामध्य में बैठता है-विराजता है ॥१॥

    भावार्थ - आत्मा शरीर के अन्दर इन्द्रियों से पूर्व आता है। वह शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में अपनी चेतना को प्रसारित करता है और अपने को अनुभव करता है कि मैं यहाँ-इस शरीर में हूँ तथा परिवारिक जन प्रतीक्षा करते हैं कि हमारे बीच में नया आत्मा सन्तान के रूप में आये। आत्मा नित्य है, अतः पहले से ही है, वह शरीर में आकर जन्म ले लेता है ॥१॥

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