ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 63/ मन्त्र 1
प॒रा॒वतो॒ ये दिधि॑षन्त॒ आप्यं॒ मनु॑प्रीतासो॒ जनि॑मा वि॒वस्व॑तः । य॒याते॒र्ये न॑हु॒ष्य॑स्य ब॒र्हिषि॑ दे॒वा आस॑ते॒ ते अधि॑ ब्रुवन्तु नः ॥
स्वर सहित पद पाठप॒रा॒ऽवतः॑ । ये । दिधि॑षन्ते । आप्य॑म् । मनु॑ऽप्रीतासः । जनि॑म । वि॒वस्व॑तः । य॒यातेः॑ । ये । न॒हु॒ष्य॑स्य । ब॒र्हिषि॑ । दे॒वाः । आस॑ते । ते । अधि॑ । ब्रु॒व॒न्तु॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परावतो ये दिधिषन्त आप्यं मनुप्रीतासो जनिमा विवस्वतः । ययातेर्ये नहुष्यस्य बर्हिषि देवा आसते ते अधि ब्रुवन्तु नः ॥
स्वर रहित पद पाठपराऽवतः । ये । दिधिषन्ते । आप्यम् । मनुऽप्रीतासः । जनिम । विवस्वतः । ययातेः । ये । नहुष्यस्य । बर्हिषि । देवाः । आसते । ते । अधि । ब्रुवन्तु । नः ॥ १०.६३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 63; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में जीवन्मुक्तों से पढ़कर सर्वकार्यसिद्धि करनी चाहिए, अभ्युदय निःश्रेयस का मार्ग जाना जाता है, जीवनयात्रा निर्दोष चलाई जाती है, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(ये मनुप्रीतासः) जो मननशील मनुष्य से प्रेम करनेवाले महाविद्वान् (परावतः) दूर से भी आए (आप्य जनिम दिधिषन्त) प्राप्तव्य ब्रह्मचारी नवबालक को उपदेश करते हैं (विवस्वतः-ययातेः-नहुष्यस्य) विशेषरूप से विद्याओं में बसनेवाले यत्नशील तथा संसारबन्धन को दहन करने में कुशल विद्वान् के (बर्हिषि) आसन पद पर (आसते) विराजते हैं (ते नः-अधि ब्रुवन्तु) वे हमें शिष्यरूप स्वीकार कर उपदेश दें ॥१॥
भावार्थ - विद्याओं में निष्णात यत्नशील वैराग्यवान् महाविद्वान् उच्च पद पर विराजमान दूर से प्राप्त ब्रह्मचारी को प्रीति से शिष्य बनाकर पढ़ावें और उपदेश संसार को देवें ॥१॥
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