ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 72/ मन्त्र 3
ऋषिः - बृहस्पतिर्बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी
देवता - देवाः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
दे॒वानां॑ यु॒गे प्र॑थ॒मेऽस॑त॒: सद॑जायत । तदाशा॒ अन्व॑जायन्त॒ तदु॑त्ता॒नप॑द॒स्परि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म् । पू॒र्व्ये । यु॒गे । अस॑तः । सत् । अ॒जा॒य॒त॒ । तत् । आशाः॑ । अनु॑ । अ॒जा॒य॒न्त॒ । तत् । उ॒त्ता॒नऽप॑दः । परि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानां युगे प्रथमेऽसत: सदजायत । तदाशा अन्वजायन्त तदुत्तानपदस्परि ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम् । पूर्व्ये । युगे । असतः । सत् । अजायत । तत् । आशाः । अनु । अजायन्त । तत् । उत्तानऽपदः । परि ॥ १०.७२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 72; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(देवानां प्रथमे युगे) दिव्यगुणवाले सूर्यादि के प्रथम सृष्टिकाल में (असतः सत्-अजायत) अव्यक्त उपादान प्रकृति से सत्-व्यक्तरूप जगत् उत्पन्न होता है (तत्परि-उत्तानपदः) उसके पश्चात् व्यक्त विकृति से उत्तानपद-संसारवृक्ष उत्पन्न होता है (ततः-आशा-अजायन्त) फिर संसारवृक्ष से दिशाएँ उत्पन्न हुई हैं (उत्तानपदः भूः-जज्ञे) संसार वृक्ष से पृथिवीलोक उत्पन्न होता है (भुवः-आशाः-अजायन्त) पृथिवीलोक से आशावाले-कामनावाले प्राणी उत्पन्न हुए, इस प्रकार (अदितेः-दक्षः) अखण्ड अग्नि से खण्डरूप सूर्य उत्पन्न हुआ (दक्षात्-उ-अदितिः-परि) सूर्य से उषा उत्पन्न होती है ॥३,४॥
भावार्थ - अव्यक्त उपादन प्रकृति से व्यक्त विकृतिरूप उत्पन्न होता है, फिर संसार उत्पन्न होता है, पुनः दिशाएँ प्रकट होती हैं, पश्चात् पृथिवीलोक, पृथिवीलोक से कामनावाले प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार आरम्भसृष्टि में अखण्ड अग्नि से सूर्य और सूर्य से उषा का प्रकाश होता है ॥३,४॥
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