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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 93/ मन्त्र 2
    ऋषिः - तान्वः पार्थ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिगार्च्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    य॒ज्ञेय॑ज्ञे॒ स मर्त्यो॑ दे॒वान्त्स॑पर्यति । यः सु॒म्नैर्दी॑र्घ॒श्रुत्त॑म आ॒विवा॑सत्येनान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञेऽय॑ज्ञे । सः । मर्त्यः॑ । दे॒वान् । स॒प॒र्य॒ति॒ । यः । सु॒म्नैः । दी॒र्घ॒श्रुत्ऽत॑मः । आ॒ऽविवा॑साति । ए॒ना॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञेयज्ञे स मर्त्यो देवान्त्सपर्यति । यः सुम्नैर्दीर्घश्रुत्तम आविवासत्येनान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञेऽयज्ञे । सः । मर्त्यः । देवान् । सपर्यति । यः । सुम्नैः । दीर्घश्रुत्ऽतमः । आऽविवासाति । एनान् ॥ १०.९३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 93; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (यज्ञे यज्ञे) प्रत्येक यज्ञ में (सः-मर्त्यः) वह जो मनुष्य (देवान् सपर्यति) वायु आदि दिव्य पदार्थों को परिष्कृत करता है, स्वानुकूल बनाता है (यः) जो (दीर्घश्रुत्तमः) बहुत काल तक अत्यन्त शास्त्र श्रवण करनेवाला है, वह (सुम्नैः) सुखों से सम्पन्न होता है (एनान्-आविवासति) इन देवों को भलीभाँति परिपूर्णरूप से उपयुक्त बनाता है ॥२॥

    भावार्थ - यज्ञ के द्वारा वायु आदि देवों को संस्कृत करनेवाला मनुष्य सुखों से पूर्ण हो जाता है, इसलिए उन देवों को उपयोगी बना लेता है ॥२॥

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