अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
सूक्त - सविता
देवता - पशुसमूहः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पशुसंवर्धन सूक्त
ए॒ह य॑न्तु प॒शवो॒ ये प॑रे॒युर्वा॒युर्येषां॑ सहचा॒रं जु॒जोष॑। त्वष्टा॒ येषां॑ रूपधेयानि॒ वेदा॒स्मिन्तान्गो॒ष्ठे स॑वि॒ता नि य॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒ह । य॒न्तु॒ । प॒शव॑: । ये । प॒रा॒ऽई॒यु: । वा॒यु: । येषा॑म् । स॒ह॒ऽचा॒रम् । जु॒जोष॑ । त्वष्टा॑ । येषा॑म् । रू॒प॒ऽधेया॑नि । वेद॑ । अ॒स्मिन् । तान् । गो॒ऽस्थे । स॒वि॒ता । नि । य॒च्छ॒तु॒ ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एह यन्तु पशवो ये परेयुर्वायुर्येषां सहचारं जुजोष। त्वष्टा येषां रूपधेयानि वेदास्मिन्तान्गोष्ठे सविता नि यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इह । यन्तु । पशव: । ये । पराऽईयु: । वायु: । येषाम् । सहऽचारम् । जुजोष । त्वष्टा । येषाम् । रूपऽधेयानि । वेद । अस्मिन् । तान् । गोऽस्थे । सविता । नि । यच्छतु ॥२६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्रियों का दमन और पशुओं का पालन ।
भावार्थ -
(सविता) गोपालक जिस प्रकार पशुओं को हांकता है और गोशाला में पुनः लाकर उनको नियम से खूंटे में बांध देता है उसी प्रकार सब का प्रेरक और नियन्ता परमेश्वर (अस्मिन् गोष्ठे) इस गोष्ठ रूप इन्द्रियों के निवासस्थान देह में (तान्) उन पशु इन्द्रियों को लाकर नियम में रखता है । (त्वष्टा) समस्त संसार को अपनी शक्ति से रचने हारा ईश्वर जिनके (रूपधेयानि) रूप (वेद) जानता है और (ये पशवः) जो पशु=दर्शन या विषय का ग्रहण और दर्शन करने वाले इन्द्रियगण (परेयुः) बाहर विषयों के ज्ञान के लिये चले जाते हैं (वायुः) वायुरूप सूत्रात्मा प्राण भी (येषां) जिनके (सहचारं) साथ २ गति किया करता है। वे पशुरूप इन्द्रियां (इह) इस देह में (आ यन्तु) पुनः आ जावें ।
टिप्पणी -
इन्द्रियों के वर्णन के साथ २ गोशाला से पशुओं को बाहर लें जाना उनको शुद्ध वायु का सेवन कराना और उनको ठीक २ पहचान २ कर नियत २ स्थान पर उचित रूप से बांधने का भी उपदेश वेद ने किया है । (दि०) ‘सहतारंजुजोष’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
सविता ऋषिः। पशवो देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। ३ उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ४ भुरिगनुष्टुप्। ५ अनुष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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