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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
    सूक्त - शन्तातिः देवता - चन्द्रमाः, विश्वे देवाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रोग निवारण सूक्त

    उ॒त दे॑वा॒ अव॑हितं॒ देवा॒ उन्न॑यथा॒ पुनः॑। उ॒ताग॑श्च॒क्रुषं॑ देवा॒ देवा॑ जी॒वय॑था॒ पुनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । दे॒वा॒: । अव॑ऽहितम् । देवा॑: । उत् । न॒य॒थ॒ । पुन॑: । उ॒त । आग॑: । च॒क्रुष॑म् । दे॒वा॒: । देवा॑: । जी॒वय॑था । पुन॑: ॥१३.1॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः। उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । देवा: । अवऽहितम् । देवा: । उत् । नयथ । पुन: । उत । आग: । चक्रुषम् । देवा: । देवा: । जीवयथा । पुन: ॥१३.1॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 13; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (उत) और हे (देवाः) विद्वान्, दिव्यगुणयुक्त पुरुषों ! इस पुरुष को या बालक को (अवहितं) सावधान, प्रमादरहित करो और हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (पुनः) पुनः २ अपराध करने एवं नीच भावों में जा पड़ने पर भी उसे उत्तम उपदेशों और सद्व्रतों के आचरणों द्वारा (उत् नयथ) बार २ उन्नत करो। (उत) और (आगः चक्रुषं) पापाचरण करने पर भी इस पुरुष या बालक को (देवाः पुनः उन्नयथ) बार २ उन्नत करो। हे (देवाः) देव समान सदाचार युक्त पुरुषों ! यदि इस का आत्मा पापाचारण द्वारा सर्वथा मर भी चुका हो और उसे पाप पुण्य और भले बुरे का ज्ञान भी न रह गया हो तो भी (पुनः) बार बार (जीवयथ) उसे जीवित करो, उसके आत्मा की चेतना को पुनः जगाओ जिससे वह पाप को पाप और धर्म को धर्म समझे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंताति र्ऋषिः। चन्द्रमा उत विश्वे देवा देवताः। १-७ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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