अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
सूक्त - मृगारः
देवता - द्यावापृथिवी
छन्दः - पुरोऽष्टिर्जगती
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
म॒न्वे वां॑ द्यावापृथिवी सुभोजसौ॒ सचे॑तसौ॒ ये अप्र॑थेथा॒ममि॑ता॒ योज॑नानि। प्र॑ति॒ष्ठे ह्यभ॑वतं॒ वसू॑नां॒ ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठम॒न्वे । वा॒म् । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । सु॒ऽभो॒ज॒सौ॒ । सऽचे॑तसौ । ये इति॑ । अप्र॑थेथाम् । अमि॑ता । योज॑नानि ।प्र॒ति॒स्थे इति॑ प्र॒ति॒ऽस्थे । हि । अभ॑वतम् । वसू॑नाम । ते इति॑ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्वे वां द्यावापृथिवी सुभोजसौ सचेतसौ ये अप्रथेथाममिता योजनानि। प्रतिष्ठे ह्यभवतं वसूनां ते नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठमन्वे । वाम् । द्यावापृथिवी इति । सुऽभोजसौ । सऽचेतसौ । ये इति । अप्रथेथाम् । अमिता । योजनानि ।प्रतिस्थे इति प्रतिऽस्थे । हि । अभवतम् । वसूनाम । ते इति । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
विषय - पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ -
हे (द्यावापृथिवी) परमात्मा की पितृशक्ति तथा मातृशक्ति ! (वां) तुम दोनों का मैं (मन्वे) मनन करता हूं। तुम दोनों (सु-भोजसौ) उत्तम रीति से समस्त संसार के प्राणियों को पालने वा, नाना भोग देने हारी, (स-चेतसौ) तथा मानो एक चित्त वाली हो। (ये) जो तुम दोनों (अमिता) अपरिमित (योजनानि) योजनों, दूरी तक (अप्रथेथाम्) विस्तृत हो। तुम दोनों (वसूनां) वास करने वाले प्राणियों और सूर्य आदि लोकों की (प्रतिष्ठे) प्रतिष्ठा, आश्रय (हि अभवतम्) ही रहती हो। (ते) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चचतम्) मुक्त करो।
टिप्पणी -
इस मन्त्र का आशय यह है कि संसार में दो शक्तियां प्रतीत होती हैं। एक तो नियामक पितृशक्ति और दूसरी प्रेममयी मातृशक्ति। परमात्मा की ये दोनों शक्तियां मानो एकचित्त होकर संसार के कार्य का निर्वाह कर रही हैं धौर जिधर भी दृष्टि डालें इन दो शक्तियों का सर्वत्र प्रसार दृष्टिगोचर होता है। इन्हीं दो शक्तियों के आधार पर सर्वत्र संसार और प्राणी स्थित हैं। परमात्मा की इन दो शक्तियों पर यदि ध्यान तथा विचार किया जाय तो ध्यानी तथा विचारक पापों से छूट जाते हैं। पिता की नियामक मूर्ति और माता के प्रेममय हाथ दोनों ही पापों के हटाने में शक्त हैं। इसी प्रकार का भाव अगले मन्त्रों में भी जानना चाहिये।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मृगार ऋषिः। तृतीयं मृगारसूक्तम्। १ पुरोष्टिजगती। शक्वरगर्भातिमध्येज्योतिः । २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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