अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषनाशन सूक्त
वारि॒दम्वा॑रयातै वर॒णाव॑त्या॒मधि॑। तत्रा॒मृत॒स्यासि॑क्तं॒ तेना॑ ते वारये वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठवा: । इ॒दम् । वा॒र॒या॒तै॒ । व॒र॒णऽव॑त्याम् । अधि॑ । तत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । आऽसि॑क्तम् । तेन॑ । ते॒ । वा॒र॒ये॒ । वि॒षम् ॥७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वारिदम्वारयातै वरणावत्यामधि। तत्रामृतस्यासिक्तं तेना ते वारये विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठवा: । इदम् । वारयातै । वरणऽवत्याम् । अधि । तत्र । अमृतस्य । आऽसिक्तम् । तेन । ते । वारये । विषम् ॥७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
विषय - विष चिकित्सा का उपदेश।
भावार्थ -
इस सूक्त में भी विष-चिकित्सा का उपदेश करते हैं। (वरणावत्याम् अधि) वरणा नामवाली ओषधि से युक्त धारा में बहने वाला (इदं वाः) यह जल है। (तत्र) इस में (अमृतस्य) अमृत, विष के विनाशक बल का रस (आसिक्तं) सिचा हुआ रहता है। (तेन) उस से (ते विषम् पारयामि) तेरे विष को दूर करता हूं।
वरणा नामक ओषधि धन्वन्तरि राजनिघण्टु के अनुसार ‘वरा’ ओषधि है। इस नाम वाली पाठा, वन्ध्या कर्कोटकी, विडङ्ग, हरिद्रा, काकमाची और उसके दोनों भेद काकजंघा, और चूड़ामणि, और अरणी ये ओषधियां ‘वरा’ कहाती हैं। ये सब विष नाशक बतलायी गयी हैं। इनके अंश से युक्त जल से विष का नाश करना चाहिये। इसके अतिरिक्त पृथिवी ‘वरा’ कहाती है। मिट्टी के प्रलेप से भी सर्प, वृश्चिक, ततैया आदि के विष दूर करने का प्रकार प्रसिद्ध है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गरुत्मान् ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-३, ५-७ अनुष्टुभः, ४ स्वराट्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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