अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 10
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जातवेदा अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त
उ॒पाव॑सृज॒ त्मन्या॑ सम॒ञ्जन्दे॒वानां॒ पाथ॑ ऋतु॒था ह॒वींषि॑। वन॒स्पतिः॑ शमि॒ता दे॒वो अ॒ग्निः स्वद॑न्तु ह॒व्यं मधु॑ना घृ॒तेन॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒ऽअव॑सृज । त्मन्या॑ । स॒म्ऽअ॒ञ्जन् । दे॒वाना॑म् । पाथ॑: । ऋ॒तु॒ऽथा । ह॒वींषि॑ ।वन॒स्पति॑: । श॒मि॒ता । दे॒व: । अ॒ग्नि: । स्वद॑न्तु । ह॒व्यम् । मधु॑ना । घृ॒तेन॑ ॥१२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
उपावसृज त्मन्या समञ्जन्देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि। वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन ॥
स्वर रहित पद पाठउपऽअवसृज । त्मन्या । सम्ऽअञ्जन् । देवानाम् । पाथ: । ऋतुऽथा । हवींषि ।वनस्पति: । शमिता । देव: । अग्नि: । स्वदन्तु । हव्यम् । मधुना । घृतेन ॥१२.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 10
विषय - विद्वानों द्वारा आत्मा और ईश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ -
वनस्पतिरग्निर्वा देवता। हे होतः ! आत्मन् ! तू (ऋतु-था) प्रति ऋतु के अनुसार (देवानां पाथः) देवों, इन्द्रियों के निमित्त अन्न, भोग्य विषय और (हवींषि च) ज्ञानों को (त्मन्या सम्-अञ्जन्) स्वयं प्रकट करता हुआ (उप-अवसृज) उनको प्रदान कर। (वनस्पतिः) वन-इन्द्रियों का स्वामी, जितेन्द्रिय, (शमिता) शम दमादि से युक्त, (देवः) विद्वान् योगी, (अग्निः) और ज्ञानी पुरुष ये तीनों (घृतेन) तेजोमय, प्रदीप्त ज्योति और (मधुना) मधुर आनन्द-रस के साथ (हव्यं) ज्ञान का (स्वदन्तु) आस्वाद, ग्रहण करें। यज्ञ पक्ष में—होता ऋतुओं के अनुसार सामग्री चरु आदि हवि तैयार करे और उसको अग्नि में, वनस्पति में और जीवों में भी वितरण करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। जातवेदा देवता। आप्री सूक्तम्। १, २, ४-११ त्रिष्टुभः। ३ पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
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