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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त

    तनू॑नपात्प॒थ ऋ॒तस्य॒ याना॒न्मध्वा॑ सम॒ञ्जन्त्स्व॑दया सुजिह्व। मन्मा॑नि धी॒भिरु॒त य॒ज्ञमृ॒न्धन्दे॑व॒त्रा च॑ कृणुह्यध्व॒रं नः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तनू॑ऽनपात् । प॒थ: । ऋ॒तस्य॑ । याना॑न् । मध्वा॑ । स॒म्ऽअ॒ञ्जन् । स्व॒द॒य॒ । सु॒ऽजि॒ह्व॒ । मन्मा॑नि । धी॒भि: । उ॒त । य॒ज्ञम् । ऋ॒न्धन् । दे॒व॒ऽत्रा । च॒ । कृ॒णु॒हि॒ । अ॒ध्व॒रम् । न॒: ॥१२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तनूनपात्पथ ऋतस्य यानान्मध्वा समञ्जन्त्स्वदया सुजिह्व। मन्मानि धीभिरुत यज्ञमृन्धन्देवत्रा च कृणुह्यध्वरं नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तनूऽनपात् । पथ: । ऋतस्य । यानान् । मध्वा । सम्ऽअञ्जन् । स्वदय । सुऽजिह्व । मन्मानि । धीभि: । उत । यज्ञम् । ऋन्धन् । देवऽत्रा । च । कृणुहि । अध्वरम् । न: ॥१२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (तनू-नपात्) शरीर को न गिरने देने वाले, या-इन्द्रियों को न गिरने देने वाले ! उनको विनष्ट होने से बचाने वाले अग्ने ! आत्मन्, योगिन् ! (ऋतस्य) सत्य ज्ञानमय परब्रह्म के (यानान्) जानने के साधन रूप (पथः) मार्गों को (मध्वा) आनन्द रस से (सम्-अञ्जन्) प्रकाशित करता हुआ हे (सु-जिह्व) शोभन आनन्द ग्रहण करने में चतुर शक्ति से युक्त ! तू (स्वदय) उस आनन्द-रस का उपभोग कर। और (यज्ञम्) इस योगमय यज्ञ को (ऋन्धन्) और भी अधिक गुणों से समृद्ध करता हुआ अथवा (यज्ञम्) यज्ञमय प्रजापति को (ऋन्धन्) अपने में प्रगुणित करता हुआ, उसकी उपासना करता हुआ (धीभिः) धारणावती वुद्धियों से (मन्मानि) मनन करने योग्य ज्ञानों को (उत) भी सम्पादन करता हुआ (देवत्रा) देवों में, प्राणों में, या ज्ञान प्रकाश करने वाले गुरुओं के समक्ष (नः) हमारे (अध्वरं) इस अहिंसामय निर्विघ्न यज्ञ को (कृणुहि) सम्पादित कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। जातवेदा देवता। आप्री सूक्तम्। १, २, ४-११ त्रिष्टुभः। ३ पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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