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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 101/ मन्त्र 1
सूक्त - च॒क॒र्थ॒ । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥१००.३॥
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - बलवर्धक सूक्त
आ वृ॑षायस्व श्वसिहि॒ वर्ध॑स्व प्र॒थय॑स्व च। य॑था॒ङ्गं व॑र्धतां॒ शेप॒स्तेन॑ यो॒षित॒मिज्ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वृ॒ष॒ऽय॒स्व॒ । श्व॒सि॒हि । वर्ध॑स्व । प्र॒थय॑स्व । च॒ । य॒था॒ऽअ॒ङ्गम् । व॒र्ध॒ता॒म् । शेप॑: । तेन॑ । यो॒षित॑म् । इत् । ज॒हि॒ ॥१०१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वृषायस्व श्वसिहि वर्धस्व प्रथयस्व च। यथाङ्गं वर्धतां शेपस्तेन योषितमिज्जहि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वृषऽयस्व । श्वसिहि । वर्धस्व । प्रथयस्व । च । यथाऽअङ्गम् । वर्धताम् । शेप: । तेन । योषितम् । इत् । जहि ॥१०१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 101; मन्त्र » 1
विषय - पुष्ट प्रजनन अंग होने का उपदेश।
भावार्थ -
हे पुरुष तू (वृषायस्व) सब प्रकार से वीर्यसेचन सें समर्थ हो (श्वसिहि) प्राण को ऊपर खैंच और (वर्धस्व) शरीर में खूब पुष्ट हो, (प्रथयस्व च) और अपने अंगों को भी बड़ा कर। इतना हृष्ट पुष्ट हो कि (यथा) जिससे (शेपः, अङ्गम्) कामांग भी (वर्धताम्) वृद्धि को प्राप्त हो। (तेन) उस अंग से (योषितम्) अपनी स्त्री के पास (इत्) भी (जहि) जा, सेचनसमर्थ हो। ऊपर श्वास लेकर अंगों को पुष्ट करो, जब कामांगों की पर्याप्त वृद्धि हो चुके तब युवकों को गृहस्थ धर्म से पुत्रोत्पत्ति करनी चाहिये।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शेपप्रथनकामोऽथर्वाङ्गिरा ऋषिः। ब्रह्मणस्पतिर्देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।
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