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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 106

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 106/ मन्त्र 1
    सूक्त - प्रमोचन देवता - दूर्वा, शाला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दूर्वाशाला सूक्त

    आय॑ने ते प॒राय॑णे॒ दूर्वा॑ रोहन्तु पु॒ष्पिणीः॑। उत्सो॑ वा॒ तत्र॒ जाय॑तां ह्र॒दो वा॑ पु॒ण्डरी॑कवान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽअय॑ने । ते॒ । प॒रा॒ऽअय॑ने । दूर्वा॑: । रो॒ह॒न्तु॒ । पु॒ष्पिणी॑: । उत्स॑: । वा॒ । तत्र॑ । जाय॑ताम् । ह्र॒द: । वा॒ । पु॒ण्डरी॑कऽवान् ॥१०६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयने ते परायणे दूर्वा रोहन्तु पुष्पिणीः। उत्सो वा तत्र जायतां ह्रदो वा पुण्डरीकवान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽअयने । ते । पराऽअयने । दूर्वा: । रोहन्तु । पुष्पिणी: । उत्स: । वा । तत्र । जायताम् । ह्रद: । वा । पुण्डरीकऽवान् ॥१०६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 106; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    गृहों की रक्षा और सुन्दरता के लिये उत्तम उपायों का उपदेश करते हैं। हे शाले ! (ते) तेरे (आ-अयने) आनें के स्थान में और (परा-अयने) पीछे के या दूर के स्थानों में भी (पुष्पिणीः) फूलों वाली (दूर्वाः) दूब और नाना वनस्पतियाँ (रोहन्तु) खूब उगें। और (तत्र) वहाँ (उत्सः वा) कूंआ भी (जायताम्) हो। (वा) और (पुण्डरीकवान्) कमलों वाला (ह्रदः) तालाब भी हो। रहने के घर के समीप और दूर तक भी घास से हरा भरा मैदान, फुलवाड़ी, कूंआ और पुखरिया होनी चाहिये। ऐसे घरों में अग्नि आदि का भी भय नहीं रहता।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रमोचन ऋषिः। दूर्वा शाला देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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