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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - ईर्ष्याविनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ईर्ष्याविनाशन सूक्त
ई॒र्ष्याया॒ ध्राजिं॑ प्रथ॒मां प्र॑थ॒मस्या॑ उ॒ताप॑राम्। अ॒ग्निं हृ॑द॒य्यं शोकं॒ तं ते॒ निर्वा॑पयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठई॒र्ष्याया॑: । ध्राजि॑म् । प्र॒थ॒माम् । प्र॒थ॒मस्या॑: । उ॒त । अप॑राम् । अ॒ग्निम् । हृ॒द॒य्य᳡म् । शोक॑म् । तम् । ते॒ । नि: । वा॒प॒या॒म॒सि॒ ॥१८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ईर्ष्याया ध्राजिं प्रथमां प्रथमस्या उतापराम्। अग्निं हृदय्यं शोकं तं ते निर्वापयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठईर्ष्याया: । ध्राजिम् । प्रथमाम् । प्रथमस्या: । उत । अपराम् । अग्निम् । हृदय्यम् । शोकम् । तम् । ते । नि: । वापयामसि ॥१८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
विषय - ईर्ष्या का निदान और उपाय।
भावार्थ -
(ईर्ष्यायाः) दूसरे की उन्नति को देख कर हृदय में उत्पन्न होनेवाली ईर्ष्या के (प्रथमाम्) प्रथम (ध्राजिं) तीव्र वेग को (निः वापयामसि) हम पहले ही शान्त कर लिया करें। यदि यह न हो सके तो (उत) फिर (प्रथमस्याः) पहले वेग से उत्पन्न दूसरा उससे मन्द वेग होता है उस (अपराम्) दूसरे वेग को ही (निः वापयामसि) हम शान्त कर लें। हे पुरुष ! हम तो (ते) तेरे (तम्) उस पूर्वोक्त के (हृदययम्) हृदय में सुलगनेवाले (अग्नि) आग रूप (तं शोकम्) उस शोक विषाद को भी (निः-वापयामसि) शान्त करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। ईर्ष्याविनाशनं देवता। १,३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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