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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शापनाशन सूक्त

    उप॒ प्रागा॑त्सहस्रा॒क्षो यु॒क्त्वा श॒पथो॒ रथ॑म्। श॒प्तार॑मन्वि॒च्छन्मम॒ वृक॑ इ॒वावि॑मतो गृ॒हम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । प्र । अ॒गा॒त् । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्ष: । यु॒क्त्वा । श॒पथ॑: । रथ॑म् । श॒प्तार॑म् । अ॒नु॒ऽइ॒च्छन् । मम॑ । वृक॑:ऽइव । अवि॑ऽमत: । गृ॒हम् ॥३७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप प्रागात्सहस्राक्षो युक्त्वा शपथो रथम्। शप्तारमन्विच्छन्मम वृक इवाविमतो गृहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । प्र । अगात् । सहस्रऽअक्ष: । युक्त्वा । शपथ: । रथम् । शप्तारम् । अनुऽइच्छन् । मम । वृक:ऽइव । अविऽमत: । गृहम् ॥३७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 37; मन्त्र » 1

    भावार्थ -

    (सहस्र-अक्षः) हज़ारों आंखों वाला या इन्द्रियों में उत्तेजना पैदा करनेवाला (शपथः) शपथ = कठोर वचन रूप राजा तू (रथम् = युक्त्वा) रथ जोड़ कर (उप प्र अगात्) सब तक भली प्रकार पहुँच जाता है। (वृक इव) जिस प्रकार भेड़िया गन्ध के पीछे (अवि-मतः) भेढ़ पालनेवाले के घर तक पहुँच जाता है इसी प्रकार वह शपथ रूप राजा भी (मम शप्तारम्) मेरे ऊपर व्यर्थ दोषारोपण करनेवाले का (अनुइच्छन्) पता लगाता हुआ उस अपराधी को जा पकड़े और उसे दण्ड दे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    स्वस्त्ययनकामोऽथर्वा ऋषिः। चन्द्रमा देवता। अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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