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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 48

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
    सूक्त - अङ्गिरस् देवता - श्येनः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - स्वस्तिवाचन सूक्त

    श्ये॒नोऽसि॑ गाय॒त्रच्छ॑न्दा॒ अनु॒ त्वा र॑भे। स्व॒स्ति मा॒ सं व॑हा॒स्य य॒ज्ञस्यो॒दृचि॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्ये॒न: । अ॒सि॒ । गा॒य॒त्रऽछ॑न्दा: । अनु॑ । त्वा॒ । आ । र॒भे॒ । स्व॒स्ति । मा॒ । सम् । व॒ह॒ । अ॒स्य । य॒ज्ञस्य॑ । उ॒त्ऽऋचि॑ । स्वाहा॑ ॥४८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्येनोऽसि गायत्रच्छन्दा अनु त्वा रभे। स्वस्ति मा सं वहास्य यज्ञस्योदृचि स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्येन: । असि । गायत्रऽछन्दा: । अनु । त्वा । आ । रभे । स्वस्ति । मा । सम् । वह । अस्य । यज्ञस्य । उत्ऽऋचि । स्वाहा ॥४८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    पूर्वोक्त तीनों सवनों और तीन प्रकार के ब्रह्मचर्य कालों का विशेष वर्णन करते हैं। हे प्रातः सवनरूप प्रथम ब्रह्मचर्य ! तू (श्येनः असि) श्येन अर्थात् ज्ञान, ब्रह्मतेज का सम्पादन करानेहारा और (गायत्र छन्दाः) गायन्नच्छन्दाः= प्राणसाधना, आत्मसाधना, ब्रह्मवृत्ति, ब्रह्मवर्च, तेज और वीर्य का प्राप्त करानेहारा है और २४ अक्षरोंवाले गायत्री छन्द के समान जीवन का प्रारम्भ रूप २४ वर्ष तक पालन करने योग्य है। (त्वां) तेरा मैं (अनु रसे) अनुष्ठान करता हूँ, तेरा पालन गुरु के अधीन रह कर करता हूँ। (अस्य) इस (यज्ञस्य) ब्रह्मचर्य यज्ञ के (उद् ऋषि) अन्तिम ऋचापाठ की समाप्ति तक (मा) मुझे (स्वस्ति) कल्याण पूर्वक (सं वह) प्राप्त करा। (स्वाहा) यही हमारी अपनी प्रतिज्ञा है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता। उष्णिक्। तृचं सूक्तम्॥

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