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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 53

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
    सूक्त - बृहच्छुक्र देवता - द्यौः, पृथिवी, शुक्रः, सोमः, अग्निः, वायुः, सविता छन्दः - जगती सूक्तम् - सर्वतोरक्षण सूक्त

    द्यौश्च॑ म इ॒दं पृ॑थि॒वी च॒ प्रचे॑तसौ शु॒क्रो बृ॒हन्दक्षि॑णया पिपर्तु। अनु॑ स्व॒धा चि॑कितां॒ सोमो॑ अ॒ग्निर्वा॒युर्नः॑ पातु सवि॒ता भग॑श्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यौ: । च॒ । मे॒ । इ॒दम् । पृ॒थि॒वी । च॒ । प्रऽचे॑तसौ । शु॒क्र: । बृ॒हन् । दक्षि॑णया । पि॒प॒र्तु॒ । अनु॑ । स्व॒धा । चि॒कि॒ता॒म् । सोम॑: । अ॒ग्नि: । वा॒यु: । न॒: । पा॒तु॒ । स॒वि॒ता । भग॑: । च॒ ॥५३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यौश्च म इदं पृथिवी च प्रचेतसौ शुक्रो बृहन्दक्षिणया पिपर्तु। अनु स्वधा चिकितां सोमो अग्निर्वायुर्नः पातु सविता भगश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यौ: । च । मे । इदम् । पृथिवी । च । प्रऽचेतसौ । शुक्र: । बृहन् । दक्षिणया । पिपर्तु । अनु । स्वधा । चिकिताम् । सोम: । अग्नि: । वायु: । न: । पातु । सविता । भग: । च ॥५३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 53; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (द्यौः) आकाश और (पृथिवी च) पृथिवी के तुल्य माता पिता (प्र-चेतसौ) उत्कृष्ट ज्ञानवान् होकर (मे) मेरे लिये (इदम्) इस उत्तम फल को प्राप्त करावें या इस देह की रक्षा करें। (बृहन् शुक्रः) वह महान् प्रकाशमान प्रभु (दक्षिणया) अपनी ज्ञान और कर्म शक्ति से हमें (पिपर्तु) पालित पोषित करे। (स्वधा) यह स्वयं अपने को धारण करनेवाली चितिशक्ति (अनुचिकिताम्) उस प्रभु के दिये ज्ञान के अनुसार ही सत्य ज्ञान को प्राप्त करे। और (नः) हे में (सोमः) उत्पादक, (अग्निः) सर्वज्ञ, (सविता) प्रेरक (भगः च) और ऐश्वर्यवान् परमात्मा (पातु) सदा पाले। द्यौ:-पृथिवी—उत्तरारणि और अधरारणि या सूर्य पृथिवी के समान ऊपर नीचे की दोनों शक्तियां, प्राण अपान, माता और पिता।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बृहच्छुक्र ऋषिः। नाना देवताः। १ जगती। २-३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥

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