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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
सूक्त - शन्ताति
देवता - रुद्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जलचिकित्सा सूक्त
इ॒दमिद्वा उ॑ भेष॒जमि॒दं रु॒द्रस्य॑ भेष॒जम्। येनेषु॒मेक॑तेजनां श॒तश॑ल्यामप॒ब्रव॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । इत् । वै । ऊं॒ इति॑ । भे॒ष॒जम् । इ॒दम् । रु॒द्रस्य॑ । भे॒ष॒जम् । येन॑ । इषु॑म् । एक॑ऽतेजनाम् । श॒तऽश॑ल्याम् । अ॒प॒ऽब्रव॑त् ॥५७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमिद्वा उ भेषजमिदं रुद्रस्य भेषजम्। येनेषुमेकतेजनां शतशल्यामपब्रवत् ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । इत् । वै । ऊं इति । भेषजम् । इदम् । रुद्रस्य । भेषजम् । येन । इषुम् । एकऽतेजनाम् । शतऽशल्याम् । अपऽब्रवत् ॥५७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
विषय - व्रणचिकित्सा।
भावार्थ -
(इदम् इत्) यह ही (वा उ) निश्चय से (भेषजम्) ओषधि है, (इदम्) यह (रुद्रस्य भेषजम्) रुद्र = वैद्य की उपदेश की हुई औषध है (येन) जिससे (एक-तेजनम्) एक काण्डवाले और (शत-शल्याम्) सैकड़ों फलेवाले (इषुम्) बाण को भी (अप ब्रवम्) बाहर खेंच लिया जाता है।
अध्यात्म में रुद्र = परमात्मा का उपदिष्ट ब्रह्म-ज्ञान ही इस भव-रोग की एकमात्र औषध है जिससे एकतेजना-एक काण्डवाले और ‘शतशल्य’ तीर को दूर किया जा सकता है। यह देह या जीवन ही एक काण्डवाला बाण है। जिसमें सैकड़ों व्याधियां ही ‘शतशल्य’ हैं अथवा जीवन के सौ वर्ष ही ‘शतशल्य’ हैं। उस जन्म या भवरोग की ओषधि भगवान् का उपदिष्ट ब्रह्मज्ञान ही है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंततिर्ऋषिः। १-२ रुद्रः, ३ भेषजं देवता। १ २ अनुष्टुभौ। ३ पथ्या बृहती। तृचं सूक्तम्॥
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