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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 85/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मानाशन सूक्त
व॑र॒णो वा॑रयाता अ॒यं दे॒वो वन॒स्पतिः॑। यक्ष्मो॒ यो अ॒स्मिन्नावि॑ष्ट॒स्तमु॑ दे॒वा अ॑वीवरन् ॥
स्वर सहित पद पाठव॒र॒ण: । वा॒र॒या॒तै॒ । अ॒यम् । दे॒व:। वन॒स्पति॑: । यक्ष्म॑: । य: । अ॒स्मिन् । आऽवि॑ष्ट: । तम् । ऊं॒ इति॑ । दे॒वा: । अ॒वी॒व॒र॒न् ॥८५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वरणो वारयाता अयं देवो वनस्पतिः। यक्ष्मो यो अस्मिन्नाविष्टस्तमु देवा अवीवरन् ॥
स्वर रहित पद पाठवरण: । वारयातै । अयम् । देव:। वनस्पति: । यक्ष्म: । य: । अस्मिन् । आऽविष्ट: । तम् । ऊं इति । देवा: । अवीवरन् ॥८५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 85; मन्त्र » 1
विषय - यक्ष्मा रोग की चिकित्सा।
भावार्थ -
यक्ष्मा रोग के नाश का उपदेश करते हैं। (अयम्) यह (वरणः) वरण नाम का (देवः) दिव्यगुण वाला (वनस्पतिः) वृक्ष (वारयातै) बहुत से दोषों को नाश करता है। (अस्मिन्) इस पुरुष में (यः) जो (यक्ष्मः) रोगकारी कीटाणु (आविष्टः) प्रवेश कर गये हैं (तम् उ) उनको भी (देवाः) विद्वान् लोग (अवीवरन्) वरण नामक औषध के बल से ही दूर करदें। वरण = वरुण = जीरक, इसके तीन भेद हैं। शुक्ल जीरक, कृष्ण जीरक और बृहत्पाली। जिन में बृहत्पाली जीर्ण ज्वर का भी नाशक है। कृमिघ्न तो सभी हैं वरुण तमाल वृक्ष का भी नाम है। वह सुगन्ध होने से कदाचित् यक्ष्मदोष को दूर करने में सहायक हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषि यक्ष्मनाशनकामः। वनस्पतिर्देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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