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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 88/ मन्त्र 1
ध्रु॒वा द्यौर्ध्रु॒वा पृ॑थि॒वी ध्रु॒वं विश्व॑मि॒दं जग॑त्। ध्रु॒वासः॒ पर्व॑ता इ॒मे ध्रु॒वो राजा॑ वि॒शाम॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठध्रु॒वा । द्यौ: । ध्रु॒वा । पृ॒थि॒वी । ध्रु॒वम् । विश्व॑म् । इ॒दम् । जग॑त् । ध्रु॒वास॒: । पर्व॑ता: । इ॒मे। ध्रु॒व: । राजा॑ । वि॒शाम् । अ॒यम् ॥८८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ध्रुवा द्यौर्ध्रुवा पृथिवी ध्रुवं विश्वमिदं जगत्। ध्रुवासः पर्वता इमे ध्रुवो राजा विशामयम् ॥
स्वर रहित पद पाठध्रुवा । द्यौ: । ध्रुवा । पृथिवी । ध्रुवम् । विश्वम् । इदम् । जगत् । ध्रुवास: । पर्वता: । इमे। ध्रुव: । राजा । विशाम् । अयम् ॥८८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 88; मन्त्र » 1
विषय - राजा को ध्रुव होने का उपदेश।
भावार्थ -
जिस प्रकार (द्यौः ध्रुवा) यह द्युलोक, स्थिर है। जिस प्रकार (पृथिवी ध्रुवा) पृथिवी भी स्थिर है वह अपने क्रान्तिमार्ग से विचलित नहीं होती। (इदं विश्वं जगत्) यह समस्त संसार (ध्रुवम्) ध्रुव, अपने नियमों में स्थिर है। जिस प्रकार (इमे पर्वताः ध्रुवासः) ये पर्वत भी ध्रुव हैं। उसी प्रकार (अयम् राजा) यह राजा भी (विशाम्) प्रजाओं में (ध्रुवः) स्थिर हो।
टिप्पणी -
प्र० तृ० द्वि० च० इति पादक्रमः ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। ध्रुवो देवता। १-२ अनुष्टुभौ, ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
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