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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 156 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 156/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विष्णुः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    तम॑स्य॒ राजा॒ वरु॑ण॒स्तम॒श्विना॒ क्रतुं॑ सचन्त॒ मारु॑तस्य वे॒धस॑:। दा॒धार॒ दक्ष॑मुत्त॒मम॑ह॒र्विदं॑ व्र॒जं च॒ विष्णु॒: सखि॑वाँ अपोर्णु॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । अ॒स्य॒ । राजा॑ । वरु॑णः । तम् । अ॒श्विना॑ । क्रतु॑म् । स॒च॒न्त॒ । मारु॑तस्य । वे॒धसः॑ । दा॒धार॑ । दक्ष॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् । अ॒हः॒ऽविद॑म् । व्र्ज॒म् । च॒ । विष्णुः॑ । सखि॑ऽवान् । अ॒प॒ऽऊ॒र्णु॒ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमस्य राजा वरुणस्तमश्विना क्रतुं सचन्त मारुतस्य वेधस:। दाधार दक्षमुत्तममहर्विदं व्रजं च विष्णु: सखिवाँ अपोर्णुते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। अस्य। राजा। वरुणः। तम्। अश्विना। क्रतुम्। सचन्त। मारुतस्य। वेधसः। दाधार। दक्षम्। उत्ऽतमम्। अहःऽविदम्। व्रजम्। च। विष्णुः। सखिऽवान्। अपऽऊर्णुते ॥ १.१५६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 156; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    ( विष्णुः ) व्यापक प्रकाश और तेज वाला सूर्य जिस प्रकार ( अहर्विदं ) दिन को प्राप्त कराने वाले किरण समूह को ( अप ऊर्णुते ) प्रकट करता और अन्धकार को दूर करता है और वह जिस प्रकार ( उत्तमं दक्षं दाधार ) उत्तम बल को धारण करता है और जिस प्रकार (अस्यमारुतस्य वेधसः) इस वायु गणों के प्रेरक व वृष्टि आदि के करने वाले इस सूर्य के ( क्रतुं ) कर्म सामर्थ्य को ही ( राजा वरुणः अश्विना ) राजा वरुण मेघ और दिन और रात्रि सब प्राप्त होते हैं उसी प्रकार ( सखिवान् विष्णुः ) मित्र जनों से युक्त राजा ( व्रजं अप ऊर्णुते ) शत्रु समूह को दूर भगावे और अपने सैन्य दल और अपने गुण समूह को प्रकट करे । और ( सखिवान् विष्णुः ) शिष्य रूप मित्रों से युक्त आचार्य विद्वान् पुरुष ( व्रजं ) उस परम गन्तव्य, परम वेद्य ज्ञान को और गो रूप वाणियों के संघ वेद को ( अप ऊर्णुते ) प्रकाशित करे। वह सूर्य वत् ही (अहर्विदं) प्रकाश लाभ कराने वाले ( उत्तमम् ) उत्तम ( दक्षं ) ज्ञान सामर्थ्य को ( दाधार ) धारण करे । ( राजा वरुणः ) प्रजा का मनोरंजन करने, तेज से चमकने वाला श्रेष्ठ पुरुष और ( अश्विनौ ) नाना ऐश्वर्यों के भोक्ता स्त्री-पुरुष और अश्व-सेना के अधिकारी दो मुख्य सेनानायक और वायु समान आलस्य रहित शिष्यों के नायक और ( वेधसः ) ज्ञानवान् आचार्य के ( अस्य तम् क्रतुम् ) इसके उस ज्ञान और कर्म सामर्थ्य को ( सचन्त ) प्राप्त हों और उसमें सहयोग करें । ( मारुतस्य ) वायु के समान बलवान् पुरुषों के नायक राजा परमेश्वर के भक्त उपासक सुहृदों से सखिवान् है । वह सर्वोत्तम बल और ज्ञान को धारण करता और प्रकट करता है। राजा श्रेष्ठ पुरुष सूर्य, सिन्धु, दिन रात्रि, सूर्य चन्द्र आदि सब उसी को आश्रय लेते हैं । सर्वविधाता होने से वेधा और सब प्राणियों का आश्रय होने से ‘मारुत’ है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दीर्घतमा ऋषिः । विष्णुर्देवता ॥ छन्दः- निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । निचृज्जगती । ४ जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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