ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 7
स॒त्यं त्वे॒षा अम॑वन्तो॒ धन्व॑ञ्चि॒दा रु॒द्रिया॑सः । मिहं॑ कृण्वन्त्यवा॒ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्यम् । त्वे॒षाः । अम॑ऽवन्तः । धन्व॑म् । चि॒त् । आ । रु॒द्रिया॑सः । मिह॑म् । कृ॒ण्व॒न्ति॒ । अ॒वा॒ताम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः । मिहं कृण्वन्त्यवाताम् ॥
स्वर रहित पद पाठसत्यम् । त्वेषाः । अमवन्तः । धन्वम् । चित् । आ । रुद्रियासः । मिहम् । कृण्वन्ति । अवाताम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
विषय - मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।
भावार्थ -
(त्वेषाः) विद्युत् की दीप्ति से युक्त, (अमवन्तः) बलवान् तीव्र गति वाले (रुद्रियासः) जीवों के सुखप्रद, जीवनाधार होकर जिस प्रकार वायुगण (धन्वन् चित्) अन्तरिक्ष या मरु भूमि में भी (अवाताम् ) वायु से रहित अविचल, मूसलाधार (मिहम्) वृष्टि (कृण्वन्ति) करते हैं उसी प्रकार (सत्यम्) सचमुच ये (त्वेषाः) अति तेजस्वी, प्रतापी, (अभवन्तः) बलवान्, ज्ञानी, (रुद्रियासः) शत्रुओं को रुलाने वाले वीर सेनापति के सैनिक गण (धन्वन् चित्) धनुष के बल पर ही (अवाताम्) वायु को भी बीच में से अवकाश न देने वाली अथवा वायु से भी बढ़ कर (मिहं) शर वर्षा को (कृण्वन्ति) करें। इसी प्रकार (रुद्रियासः) जीव के ये प्राण भी बलवान् दीप्तियुक्त रहकर हृदय देश में विना वायु के आनन्द-रस की वर्षा करते हैं। और तेजस्वी ज्ञानी पुरुष ज्ञानवर्षा करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
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