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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    नू चि॑त्सहो॒जा अ॒मृतो॒ नि तु॑न्दते॒ होता॒ यद्दू॒तो अभ॑वद्वि॒वस्व॑तः। वि साधि॑ष्ठेभिः प॒थिभी॒ रजो॑ मम॒ आ दे॒वता॑ता ह॒विषा॑ विवासति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । चि॒त् । स॒हः॒ऽजाः । अ॒मृतः॑ । नि । तु॒न्दते॑ । होता॑ । यत् । दू॒तः । अभ॑वत् । वि॒वस्व॑तः । वि । साधि॑ष्ठेभिः । प॒थिऽभिः॑ । रजः॑ । म॒मे॒ । आ । दे॒वऽता॑ता । ह॒विषा॑ । वि॒वा॒स॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू चित्सहोजा अमृतो नि तुन्दते होता यद्दूतो अभवद्विवस्वतः। वि साधिष्ठेभिः पथिभी रजो मम आ देवताता हविषा विवासति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। चित्। सहःऽजाः। अमृतः। नि। तुन्दते। होता। यत्। दूतः। अभवत्। विवस्वतः। वि। साधिष्ठेभिः। पथिऽभिः। रजः। ममे। आ। देवऽताता। हविषा। विवासति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (अमृतः) कभी न मरने वाला जीव, (सहोजाः) जीवन के बाधक कारणों को पराजित करनेवाले, सहनशील बल को उत्पन्न करता है । वह ही ( होता ) कर्मों के फलों का भोक्ता और गृहीता होकर भी ( दूतः ) दूत के के समान सूक्ष्म प्राण के अवयवों से बने लिंग शरीर तथा कर्मवासनाओं को जन्मान्तर में भी साथ ले जानेहारा है । वह ( देवताता ) दिव्य पदार्थ सूक्ष्म पञ्चतन्मात्रा और उनसे बने इन्द्रियगणों के बीच स्वतः बल देनेवाला होकर (हविषा) अन्न द्वारा या प्राप्त कर्म फलों द्वारा (नि तुन्दते) व्यथित होता है। (साधिष्ठेभिः पथिभिः) एक ही आश्रय, आकाश में विद्यमान मार्गों सहित ( रजः ) लोकों को बनाने वाले, (विवस्वतः) विविध वसु अर्थात् जीवों के आश्रय, लोकों के स्वामी परमेश्वर के अधीन (अभवत्) रहता और (वि आ ममे) विविध कार्यों को करता और (आ विवासति) सब प्रकार से ईश्वर की उपासना करता और नाना ऐश्वर्यो का सेवन करता है। अग्रणी राजा के पक्ष में—वह (सहोजा) बल से प्रसिद्ध, कभी न मारे जानेवाला, समस्त अधिकारों और ऐश्वर्यों का देने और लेने वाला, ( विवस्वतः ) विविध ऐश्वर्यों से युक्त राष्ट्र का ( दूतः ) सेवक, प्रतिनिधि, दूत ( अभवत् ) होता और ( यत् नितुन्दते ) शत्रुओं को पीड़ित करता है । अथवा– (विवस्वतः दूतः ) नाना तेजों से युक्त सूर्य का प्रतिनिधि अर्थात् ( दूतः होता च अभवत् ) सूर्य जिस प्रकार तापकारी और पुनः वर्षा जल का देने वाला है उसी प्रकार प्रजा को कर से पीड़ित कर ऐश्वर्य के लेने और पुनः उन पर सुखों के वर्षाने वाला ( अभवत् ) हो । वह ( साधिष्ठेभिः पथिभिः) अति उत्तम मार्गों से ( रजः ) समस्त लोकों या देशों को (वि ममे ) विविध परिमाण में प्रान्तों में विभक्त करे और ( देवताता ) विद्वानों के बीच में ( हविषा ) अपनी आज्ञा से या अन्न द्वारा (आ विवासति) समस्त जनों की सेवा करता हुआ उनका पालन करे। परमेश्वर भी सर्वशक्तिमान् प्रसिद्ध होने से ‘सहोजाः’, अमर होने से ‘अमृत’, दुष्टों का तापकारी होने से दूत होकर सूर्य के समान तेजस्वी है । वह ( नि तुन्दते ) दुष्टों को पीड़ित करता है। उत्तम मार्गों और व्यवस्थाओं से लोकों को बनाता और चलाता है । वह समस्त दिव्य पदार्थों में (हविषा) अपने आदान अर्थात् वशकारी सामर्थ्य से ( आ विवासति ) सब प्रकार आच्छादित करता, व्यापता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ५ जगती । २ विराड् जगती । ४ निचृज्जगती । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराड् त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥

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