ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 75/ मन्त्र 1
जु॒षस्व॑ स॒प्रथ॑स्तमं॒ वचो॑ दे॒वप्स॑रस्तमम्। ह॒व्या जुह्वा॑न आ॒सनि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठजु॒षस्व॑ । स॒प्रथः॑ऽतमम् । वचः॑ । दे॒वप्स॑रःऽतमम् । ह॒व्या । जुह्वा॑नः । आ॒सनि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जुषस्व सप्रथस्तमं वचो देवप्सरस्तमम्। हव्या जुह्वान आसनि ॥
स्वर रहित पद पाठजुषस्व। सप्रथःऽतमम्। वचः। देवप्सरःऽतमम्। हव्या। जुह्वानः। आसनि ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 75; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
विषय - परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ -
हे विद्वन् ! तू ( आसनि ) मुख में ( हव्या ) उत्तम भोजन करने योग्य अन्नों को ( जुह्वानः ) खाता हुआ ( देवप्सरस्तमम् ) विद्वानों को बहुत अधिक प्रसन्न करने वाले ( सप्रथस्तमम् ) अति विस्तृत, ज्ञानयुक्त ( वचः ) वाणी का ( जुषस्व ) सेवन कर। अथवा ( आसनि ) मुख्य पद पर विराज कर ग्रहण करने योग्य अन्नों और ऐश्वर्यो को ( जुह्वानः ) स्वयं लेता और अन्यों को देता हुआ विद्वानों के प्रिय उत्तम वचन का सेवन कर ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोतमो राहूगण ऋषिः । निर्देवता । छन्दः—१ गायत्री । २, ४, ५ निचृद्गायत्री । ३ विराड् गायत्री । पञ्चर्चं सूक्तम् ।
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