ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 112/ मन्त्र 1
ऋषिः - नभःप्रभेदनो वैरूपः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्र॒ पिब॑ प्रतिका॒मं सु॒तस्य॑ प्रातःसा॒वस्तव॒ हि पू॒र्वपी॑तिः । हर्ष॑स्व॒ हन्त॑वे शूर॒ शत्रू॑नु॒क्थेभि॑ष्टे वी॒र्या॒३॒॑ प्र ब्र॑वाम ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । पिब॑ । प्र॒ति॒ऽका॒मम् । सु॒तस्य॑ । प्रा॒तः॒ऽसा॒वः । तव॑ । हि । पू॒र्वऽपी॑तिः । हर्ष॑स्व । हन्त॑वे । शू॒र॒ । शत्रू॑न् । उ॒क्थेभिः॑ । ते॒ । वी॒र्या॑ । प्र । ब्र॒वा॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र पिब प्रतिकामं सुतस्य प्रातःसावस्तव हि पूर्वपीतिः । हर्षस्व हन्तवे शूर शत्रूनुक्थेभिष्टे वीर्या३ प्र ब्रवाम ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । पिब । प्रतिऽकामम् । सुतस्य । प्रातःऽसावः । तव । हि । पूर्वऽपीतिः । हर्षस्व । हन्तवे । शूर । शत्रून् । उक्थेभिः । ते । वीर्या । प्र । ब्रवाम ॥ १०.११२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 112; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्र। सर्वप्रथम उपास्य प्रभु।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुनाशन ! हे तेजस्विन् ! प्रभो ! आत्मन् ! तू (सुतस्य) उत्पन्न हुए ऐश्वर्य रस को (प्रति-कामम्) अपनी अभिलाषानुसार (पिब) पान कर, उसका उपभोग कर (हि) क्योंकि (तव) तेरा (प्रातः सावः) प्रातःकाल सब से पूर्व सवन है। तेरा ही (पूर्वपीतिः) सबसे पूर्व पान करना उचित है। अथवा तू (सुतस्य प्रतिकामं पिब) प्राप्त जगत् वा राष्ट्र-जन को उत्पन्न यथेष्ट, वा कामना वा सत्संकल्प से पालन कर, तेरी ही सबसे पूर्व उपासना और तेरा ही सबसे पूर्व, मुख्य पालन है। हम (उक्थेभिः) उत्तम वेदवचनों से (ते वीर्या प्र ब्रवाम) तेरे वीर्यों का प्रवचन करते हैं, वा हम वेदमन्त्रों द्वारा तुझे (वीर्या) वीरोचित कर्मों का (प्र ब्रवाम) प्रवचन या उपदेश करते हैं। हे (शूर) शूरवीर ! तू (शत्रून् हन्तवे) शत्रुओं के नाश करने के लिये (हर्षस्व) हर्षित हो, पुलकित और उत्साहित हो। प्रातः काल मन्त्रों का उत्तम रीति से पाठ वा उच्चारण करने से आत्मा उत्साहित होकर मानसिक दुर्भाव रूप शत्रुओं का नाश करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्नभः प्रभेदनो वैरूपः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ३, ७, ८ ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४-६, ९, १० निचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
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