ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 138/ मन्त्र 2
अवा॑सृजः प्र॒स्व॑: श्व॒ञ्चयो॑ गि॒रीनुदा॑ज उ॒स्रा अपि॑बो॒ मधु॑ प्रि॒यम् । अव॑र्धयो व॒निनो॑ अस्य॒ दंस॑सा शु॒शोच॒ सूर्य॑ ऋ॒तजा॑तया गि॒रा ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । अ॒सृ॒जः॒ । प्र॒ऽस्वः॑ । श्व॒ञ्चयः॑ । गि॒रीन् । उत् । आ॒जः॒ । उ॒स्राः । अपि॑बः । मधु॑ । प्रि॒यम् । अव॑र्धयः । व॒निनः॑ । अ॒स्य॒ । दंस॑सा । शु॒शोच॑ । सूर्यः॑ । ऋ॒तऽजा॑तया॑ । गि॒रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवासृजः प्रस्व: श्वञ्चयो गिरीनुदाज उस्रा अपिबो मधु प्रियम् । अवर्धयो वनिनो अस्य दंससा शुशोच सूर्य ऋतजातया गिरा ॥
स्वर रहित पद पाठअव । असृजः । प्रऽस्वः । श्वञ्चयः । गिरीन् । उत् । आजः । उस्राः । अपिबः । मधु । प्रियम् । अवर्धयः । वनिनः । अस्य । दंससा । शुशोच । सूर्यः । ऋतऽजातया । गिरा ॥ १०.१३८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 138; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
विषय - भौतिक जगत् में सूर्य के कार्यों का वर्णन। तदनुसार प्रभु के कर्मों का वर्णन।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (प्र-स्वः) खूब अन्नादि उत्पन्न करने वाली शक्तियों को मेघ से जल धाराओं के तुल्य ही (अव असृजः) प्रेरित करता है। (गिरीन् श्वञ्चयः) मेघ को तू ही प्रेरिता है, (उस्राः उत् आजः) किरणों को तू ही फेंकता है और (प्रियम् मधु अपिबः) सबको तृप्त करने वाले जल को तू ही पान कर लेता है। (अस्य वनिनः) इस जल और तेज से युक्त मेघ वा विद्युत् के (दंससा) कर्म से (अवर्धयः) प्रजा अन्नादि की वृद्धि करता है, और (ऋत-जातया गिरा) जल को जन्म देने वाली, जल को वर्षण करने वाली माध्यमिका वाग् विद्युत् की कान्ति से (सूर्यः शुशोच) सूर्य ही अति उज्ज्वल रूप में चमकता है। इसी प्रकार वह प्रभु उत्पादक शक्तियों को प्रेरित करता, मेघों को प्रेरित करता, सूर्यादि को चलाता, मधुर अन्न जल का पान कराता, और (वनिनः) भक्तों को बढ़ाता है। (अस्य दंससा) इस प्रभु के ही दर्शनीय कर्म से (सूर्यः शुशोच) सूर्य चमकता है, और इसी की (ऋतजातया गिरा) सत्य ज्ञान के देने वाली वेदवाणी से (सूर्यः) तेजस्वी विद्वान् सूर्य के तुल्य चमकता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिरंग औरवः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ४, ६ पादनिचृज्जगती। २ निचृज्जगती। ३, ५ विराड् जगती। षडृच सूक्तम्॥
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