ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 187/ मन्त्र 1
प्राग्नये॒ वाच॑मीरय वृष॒भाय॑ क्षिती॒नाम् । स न॑: पर्ष॒दति॒ द्विष॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । अ॒ग्नये॑ । वाच॑म् । ई॒र॒य॒ । वृ॒ष॒भाय॑ । क्षि॒ती॒नाम् । सः । नः॒ । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राग्नये वाचमीरय वृषभाय क्षितीनाम् । स न: पर्षदति द्विष: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । अग्नये । वाचम् । ईरय । वृषभाय । क्षितीनाम् । सः । नः । पर्षत् । अति । द्विषः ॥ १०.१८७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 187; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 45; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 45; मन्त्र » 1
विषय - अग्नि। उदार प्रभु की उपासना का उपदेश। परमपार प्रभु।
भावार्थ -
हे विद्वन् ! तू (क्षितीनां वृषभाय) भूमियों पर वर्षण करने वाले मेघ के समान उदार (क्षितीनां वृषभाय) प्रजाओं के बीच श्रेष्ठ स्वामी रूप (अग्नये) अग्निवत् तेजस्वी, अग्रणी, पुरुष के लिये (वाचम् प्र ईरय) वाणी को प्रेरित कर, उसकी स्तुति कर। (सः) वह (नः) हमें (द्विषः) शत्रु और अप्रिय भीतरी काम क्रोधादि से भी (अति पर्षत्) पार करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्वत्स आग्नेयः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृद् गायत्री। २—५ गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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